सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

संदेश

अक्टूबर, 2022 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

महाभारत में सबसे महान योद्धा कौन था जो अकेले पूरे युद्ध को समाप्त कर सकता था?By वनिता कासनियां पंजाबकोई नही। अगर कर सकता तो महाभारत के युद्ध को 18 दिनों तक चलने की आवश्यकता ही नही थी।इस उत्तर को पढ़ने से पहले अनुरोध है कि अपनी व्यक्तिगत श्रद्धा को कृपया थोड़ी देर अलग रख दें। हम सभी की श्रीकृष्ण में श्रद्धा है किंतु इस युद्ध के वास्तविक कारण और महत्व को समझने के लिए कृपया कुछ देर के लिए हम श्रीकृष्ण को ईश्वर ना समझ कर एक असाधारण मनुष्य मान लेते हैं ताकि दोनो पक्षों का बल अच्छे तरह से समझ सकें। आइये अब आरम्भ करते हैं।जो लोग बर्बरीक का नाम ले रहे हैं उन्हें ये बता दूं कि बर्बरीक जैसा कोई चरित्र मूल व्यास महाभारत में है ही नही। अर्थात घटोत्कच के पुत्र के रूप में बर्बरीक, अंजनपर्व एवं मेघवर्ण का वर्णन तो है लेकिन बर्बरीक की तपस्या, सिद्धि, तीन बाण, शीश दान इत्यादि का जो वर्णन है वो मूल व्यास महाभारत में नही है। वो कथा लोककथाओं में अधिक प्रसिद्ध है। और अगर था भी तो वरदान प्राप्त योद्धाओं की महाभारत में कोई कमी नही थी। इसीलिए बर्बरीक को यही पर छोड़ देते हैं।अर्जुन के दिव्यास्त्रों की भी बड़ी चर्चा होती है किंतु ये भी याद रखें कि वो अकेला नही था जिसके पास दिव्यास्त्र थे। महाभारत का युद्ध उन योद्धाओं से भरा था जिनके पास विभिन्न प्रकार के दिव्यास्त्र थे। भीष्म, द्रोण, कर्ण, अश्वत्थामा, भगदत्त, कृपाचार्य, कृतवर्मा, जयद्रथ, सुशर्मा, बाह्लीक, सुदक्षिण, श्रीकृष्ण, सात्यिकी, द्रुपद, विराट, धृतकेतु, मलयध्वज इत्यादि ऐसे योद्धा थे जिनके पास अनेकानेक दिव्यास्त्र थे।ऐसा ना समझें कि महाभारत में दिव्यास्त्रों का प्रयोग हुआ ही नही। दोनो पक्षों के योद्धाओं द्वारा कई बार दिव्यास्त्र का प्रयोग हुआ। विशेषकर भीष्म और अर्जुन के युद्ध मे कई बार दिव्यास्त्रों का प्रयोग हुआ और अर्जुन और कर्ण के अंतिम युद्ध मे तो केवल दिव्यास्त्रों का ही प्रयोग हुआ।अगर महास्त्रों (ध्यान दें, साधारण दिव्यास्त्र नही) की बात की जाए तो ये सत्य है कि अर्जुन के पास पाशुपतास्त्र था जिससे सबका नाश तत्काल किया जा सकता था किंतु पाशुपत उस युद्ध मे कभी प्रयोग ही नही किया गया। उसका एक कारण ये भी था कि पाशुपत का प्रयोग स्वयं से निर्बल शत्रु पर नही किया जा सकता था अन्यथा वो चलाने वाले का ही नाश कर देता था। महाभारत में अर्जुन के समकक्ष योद्धा गिने चुने ही थे इस लिए भी पाशुपतास्त्र का प्रयोग नही किया गया। दूसरा महाअस्त्र नारायणास्त्र अश्वथामा के पास था और उसका प्रयोग हुआ भी किन्तु श्रीकृष्ण ने पांडवों को बचा लिया। अब अगर बात करें ब्रह्मास्त्र की तो उस युग मे भीष्म, द्रोण, कर्ण, अश्वत्थामा और अर्जुन, इन पाँच योद्धाओं के पास ब्रह्मास्त्र था। इनमें से अश्वथामा के पास ब्रह्मास्त्र का अधूरा ज्ञान ही था। कर्ण को इसका पूरा ज्ञान था किंतु वो श्रापग्रस्त था इसी कारण अर्जुन से अंतिम युद्ध मे ब्रह्मास्त्र का प्रयोग ना कर सका। इसके अतिरिक्त परशुराम के पास भी ब्रह्मास्त्र था किंतु उन्होंने युद्ध मे भाग नही लिया। कुछ लोग समझते हैं कि श्रीकृष्ण के पास भी ब्रह्मास्त्र था किंतु ऐसा नही है, उनके पास ब्रह्मास्त्र होने का कोई वर्णन महाभारत में नही है। किन्तु श्रीकृष्ण तो श्रीहरि के पूर्णावतार है इसीलिए उनके पास ब्रम्हास्त्र होने, ना होने से कोई फर्क नही पड़ता।इसके अतिरिक्त कुछ ऐसे दिव्यास्त्र भी थे जिनका प्रयोग केवल किसी एक योद्धा को ही था। जैसे प्रस्वापास्त्र केवल भीष्म के पास ही था, जिसका प्रयोग वे परशुराम के विरुद्ध युद्ध मे करने वाले थे किंतु किया नही। नारायणास्त्र का ज्ञान केवल अश्वथामा और श्रीकृष्ण को था और भार्गवास्त्र का ज्ञान केवल कर्ण के पास ही था। इसके अतिरिक्त सुदर्शन चक्र को केवल श्रीकृष्ण और परशुराम ही धारण कर सकते थे और पाशुपतास्त्र केवल अर्जुन के पास था। पता नही ये कितना प्रामाणिक है किंतु कई जगह वर्णन है कि भीष्म और द्रोण के पास ब्रह्मशिरा का ज्ञान भी था जो उन्हें परशुराम से मिला। ब्रह्मशिरा ब्रह्मास्त्र से 4 गुणा अधिक शक्तिशाली होता है। हालांकि परशुराम ने कर्ण को ये ज्ञान नही दिया और ना ही द्रोण ने अर्जुन और यहाँ तक कि अश्वत्थामा को भी इसका ज्ञान नही दिया।इतने वृहद विश्लेषण की आवश्यकता इसीलिए पड़ी कि आप ये समझ लें कि महाभारत में केवल अर्जुन के पास ही दिव्यास्त्र नही थे। हाँ, अन्य योद्धाओं की तुलना में उसके पास कुछ अधिक दिव्यास्त्र थे जो उसने इंद्र से प्राप्त किये थे। दूसरे कि जो ये समझते हैं कि महाभारत में दिव्यास्त्रों का प्रयोग नही हुआ वे भी गलत हैं। उस महायुद्ध में भयंकर मात्रा में दिव्यास्त्रों का प्रयोग हुआ था। उस युद्ध मे ऐसे कई योद्धा थे जो शीघ्रता से उस युद्ध को समाप्त कर सकते थे। जैसा कि श्रीकृष्ण स्वयं कहते हैं कि अगर केवल भीष्म नही होते तो वो युद्ध केवल 1 दिन में जीता जा सकता था।तो अब प्रश्न आता है कि जब महाभारत में इतने महान योद्धा थे तो वो युद्ध 18 दिनों तक क्यों खिंच गया? उत्तर है केवल श्रीकृष्ण के कारण।आप इस युद्ध के उद्देश्य को जानने का प्रयास कीजिये। श्रीकृष्ण का उद्देश्य इस युद्ध के द्वारा अधिक से अधिक योद्धाओं का नाश कराना था और वो भी दोनों ओर से। कहा जाता है कि उस समय पृथ्वी का भार इतना बढ़ गया था कि उसके बोझ से पृथ्वी फट जाती। पृथ्वी का बोझ कम करना अत्यंत आवश्यक था और श्रीकृष्ण का अवतरण वास्तव में इसी कारण हुआ था, ना कि कंस को मारने के कारण। अगर ये युद्ध जल्दी समाप्त हो जाता तो उनका ये उद्देश्य पूर्ण नही हो पाता। यही कारण है कि उनके ही कारण ये युद्ध इतने दिनों तक चला।वास्तव में श्रीकृष्ण उस युद्ध मे अद्भुत भूमिका निभा रहे थे। उन्हें दोनो ओर के योद्धाओं का नाश भी कराना था और इस बात का ध्यान भी रखना था कि पांडवों की पराजय ना हो। वो उस युद्ध मे कितने दवाब में होंगे इसका हम और आप अनुमान भी नही लगा सकते।यही कारण था कि उन्होंने युद्ध मे शस्त्र ना उठाने की प्रतिज्ञा कर ली और उनकी प्रेरणा से बलराम ने भी युद्ध मे भाग नही लिया ताकि वो युद्ध अधिक समय तक चल सके। इन दोनो के युद्ध मे भाग लेने पर संभव था कि युद्ध कुछ जल्दी समाप्त हो जाता और श्रीकृष्ण का उद्देश्य अधूरा रह जाता। जो लोग उनपर पक्षपाती होने का आरोप लगाते हैं वे ये जान लें कि महाभारत के 36 वर्ष पश्चात जब यादवों की संख्या और बल बहुत अधिक बढ़ गया तो स्वयं श्रीकृष्ण और बलराम ने अपने ही यादव वंश का नाश कर दिया। गांधारी का श्राप तो बस निमित्तमात्र था।अब जाते जाते श्रीकृष्ण को एक योद्धा के रूप में भी देख लेते हैं। वे श्रीहरि के पूर्ण अवतार थे और उनकी सभी 16 कलाओं के साथ जन्में थे। श्रीहरि के सभी शस्त्र उनके पास थे किंतु इसपर भी कई युद्ध मे उन्हें भी संघर्ष करना पड़ा था। हालांकि इसके पीछे भी उनका उद्देश्य वही था जो महाभारत युद्ध के पीछे था।जैसे जरासंध से वे 18 वर्ष तक युद्ध करते रहे और उसकी सेना को समाप्त करने के बाद भी मथुरा छोड़ द्वारिका में आकर बस गए। शाल्व और उनका द्वंद 26 दिनों तक चला था। सुभद्रा के वचन के कारण जब श्रीकृष्ण और अर्जुन में युद्ध हुआ था तो वो 11 दिनों तक चलता रहा जबतक दोनो ने स्वयं युद्ध नही रोका। पौंड्रक और उनका युद्ध 16 दिनों तक चला था, एकलव्य का वध उन्होंने तीन दिन के युद्ध के पश्चात किया। जाम्बवन्त और उनका युद्ध 23 दिनों तक चला। बाणासुर के साथ उनका युद्ध 1 मास तक चला जिसके बाद अंततः भगवान शंकर को बाणासुर की सहायता के लिए आना पड़ा।इसीलिए ये जान लें कि महाभारत का युद्ध इतने दिन इसी कारण चला क्योंकि श्रीकृष्ण ऐसा ही चाहते थे। और कोई ऐसा नही था जो उनकी इच्छा के विरुद्ध जाकर उस युद्ध को शीघ्रता से समाप्त कर देता।आशा है आपको उत्तर तर्कसंगत लगा होगा। अब जाते जाते आपको एक प्रश्न के साथ छोड़े जा रही हूँ।"आपमे से कितने लोगों को लगता है कि वर्तमान में पृथ्वी का भार (जनसंख्या) उतारने के लिए ऐसे ही किसी महायुद्ध की आवश्यकता है?"जय श्रीकृष्ण। 🚩

महाभारत में सबसे महान योद्धा कौन था जो अकेले पूरे युद्ध को समाप्त कर सकता था? By वनिता कासनियां पंजाब कोई नही। अगर कर सकता तो महाभारत के युद्ध को 18 दिनों तक चलने की आवश्यकता ही नही थी। इस उत्तर को पढ़ने से पहले अनुरोध है कि अपनी व्यक्तिगत श्रद्धा को कृपया थोड़ी देर अलग रख दें। हम सभी की श्रीकृष्ण में श्रद्धा है किंतु इस युद्ध के वास्तविक कारण और महत्व को समझने के लिए कृपया कुछ देर के लिए हम श्रीकृष्ण को ईश्वर ना समझ कर एक असाधारण मनुष्य मान लेते हैं ताकि दोनो पक्षों का बल अच्छे तरह से समझ सकें। आइये अब आरम्भ करते हैं। जो लोग बर्बरीक का नाम ले रहे हैं उन्हें ये बता दूं कि बर्बरीक जैसा कोई चरित्र मूल व्यास महाभारत में है ही नही। अर्थात घटोत्कच के पुत्र के रूप में बर्बरीक, अंजनपर्व एवं मेघवर्ण का वर्णन तो है लेकिन बर्बरीक की तपस्या, सिद्धि, तीन बाण, शीश दान इत्यादि का जो वर्णन है वो मूल व्यास महाभारत में नही है। वो कथा लोककथाओं में अधिक प्रसिद्ध है। और अगर था भी तो वरदान प्राप्त योद्धाओं की महाभारत में कोई कमी नही थी। इसीलिए बर्बरीक को यही पर छोड़ देते हैं। अर्जुन के दिव्यास्त्रों की भी बड़ी...

रामायण धारावाहिक की शुटिंग के समय निर्देशक रामानंद सागर के लिये सबसे मुश्किल काम था, #काकभुशंडी और शिशु राम के दृश्य फिल्माना। दोनो ही निर्देशक के आदेश का तो पालन करने से रहे। यूनिट के सौ से अधिक सदस्यो और स्टूडियो के लोग कौए को पकड़ने में घंटों लगे रहे। पूरे दिन की कड़ी मेहनत के बाद वे चार कौओं को जाल में फँसाने में सफल हो गए। चारों को चेन से बाँध दिया गया, ताकि वे अगले दिन की शूट से पहले रात में उड़ न जाएँ। सुबह तक केवल एक ही बचा था और वह भी अल्युमीनियम की चेन को अपनी पैनी चोंच से काटकर उड़ जाने के लिए संघर्ष कर रहा था। अगले दिन शॉट तैयार था। कमरे के बीच शिशु श्रीराम और उनके पास ही चेन से बँधा कौआ था। लाइट्स ऑन हो गई थीं। रामानंद सागर शांति से प्रार्थना कर रहे थे, जबकि कौआ छूटने के लिए हो-हल्ला कर रहा था। वे उस भयभीत कौए के पास गए और काकभुशुंडी के समक्ष हाथ जोड़ दिए, और फिर आत्मा से याचना की “काकभुशुंडीजी, रविवार को इस एपिसोड का प्रसारण होना है, मैं आपकी शरण में आया हूँ, कृपया मेरी सहायता कीजिए।" निस्तब्ध सन्नाटा छा गया, चंचल कौआ एकदम शांत हो गया ऐसा प्रतीत होता था, जैसे कि काकभुशुंडी स्वयं पृथ्वी पर उस बंधक कौए के शरीर में आ गए हों। रामानंद सागर ने जोर से कहा, 'कैमरा' 'रोलिंग', कौए की चेन खोल दी गई और 10 मिनट तक कैमरा चालू रहा। रामानंद सागर निर्देश देते रहे, “काकभुशुंडीजी, शिशु राम के पास जाओ और रोटी छीन लो।” कौए ने निर्देशों का अक्षरश: पालन किया, काकभुशंडीजी ने रोटी छीनी और रोते हुए शिशु को वापस कर दी, उसे संशय से देखा, उसने प्रत्येक प्रतिक्रिया दर्शायी और दस मिनट के चित्रांकन के पश्चात् उड़ गया। मैं इस दैविक घटना का साक्षी था। निस्संदेह वे काकभुशुंडी (कागराज) ही थे, जो रामानंद सागर का मिशन पूरा करने के लिए पृथ्वी पर उस कौए के शरीर में आए थे। जय श्रीराम! जय काकभुशंडी! किताब रामानंद सागर के जीवन की अकथ कथाएँ, Page no. 200 🚩🙏

   रामायण धारावाहिक की शुटिंग के समय निर्देशक रामानंद सागर के लिये सबसे मुश्किल काम था, #काकभुशंडी और शिशु राम के दृश्य फिल्माना। दोनो ही निर्देशक के आदेश का तो पालन करने से रहे। यूनिट के सौ से अधिक सदस्यो और स्टूडियो के लोग कौए को पकड़ने में घंटों लगे रहे। पूरे दिन की कड़ी मेहनत के बाद वे चार कौओं को जाल में फँसाने में सफल हो गए। चारों को चेन से बाँध दिया गया, ताकि वे अगले दिन की शूट से पहले रात में उड़ न जाएँ। सुबह तक केवल एक ही बचा था और वह भी अल्युमीनियम की चेन को अपनी पैनी चोंच से काटकर उड़ जाने के लिए संघर्ष कर रहा था। अगले दिन शॉट तैयार था। कमरे के बीच शिशु श्रीराम और उनके पास ही चेन से बँधा कौआ था। लाइट्स ऑन हो गई थीं। रामानंद सागर शांति से प्रार्थना कर रहे थे, जबकि कौआ छूटने के लिए हो-हल्ला कर रहा था। वे उस भयभीत कौए के पास गए और काकभुशुंडी के समक्ष हाथ जोड़ दिए, और फिर आत्मा से याचना की “काकभुशुंडीजी, रविवार को इस एपिसोड का प्रसारण होना है, मैं आपकी शरण में आया हूँ, कृपया मेरी सहायता कीजिए।" निस्तब्ध सन्नाटा छा गया, चंचल कौआ एकदम शांत हो गया ऐसा प्रतीत होता था, जैसे क...

अयोध्यापति महाराज दशरथ के दरबार में यथोचित आसन पर गुरु वशिष्ठ, मन्त्रीगण और दरबारीगण बैठे थे। अयोध्यानरेश ने गुरु वशिष्ठ से कहा, हे गुरुदेव! जीवन तो क्षणभंगुर है और मैं वृद्धावस्था की ओर अग्रसर होते जा रहा हूँ। राम, भरत, लक्षम्ण और शत्रुघ्न चारों ही राजकुमार अब वयस्क भी हो चुके हैं। मेरी इच्छा है कि इस शरीर को त्यागने के पहले राजकुमारों का विवाह देख लूँ। अतः आपसे निवेदन है कि इन राजकुमारों के लिये योग्य कन्याओं की खोज करवायें। महाराज दशरथ की बात पूरी होते ही द्वारपाल ने ऋषि विश्वामित्र के आगमन की सूचना दी। स्वयं राजा दशरथ ने द्वार तक जाकर विश्वामित्र की अभ्यर्थना की और आदरपूर्वक उन्हें दरबार के अन्दर ले आये तथा गुरु वशिष्ठ के पास ही आसन देकर उनका यथोचित सत्कार किया। कुशलक्षेम पूछने के पश्चात् राजा दशरथ ने विनम्र वाणी में ऋषि विश्वामित्र से कहा, हे मुनिश्रेष्ठ! आपके दर्शन से मैं कृतार्थ हुआ तथा आपके चरणों की पवित्र धूलि से यह राजदरबार और सम्पूर्ण अयोध्यापुरी धन्य हो गई। अब कृपा करके आप अपने आने का प्रयोजन बताइए। किसी भी प्रकार की आपकी सेवा करके मैं स्वयं को अत्यंत भाग्यशाली समझूँगा। राजा के विनयपूर्ण वचनों को सुनकर मुनि विश्वामित्र बोले, हे राजन्! आपने अपने कुल की मर्यादा के अनुरूप ही वचन कहे हैं। इक्ष्वाकु वंश के राजाओं की श्रद्धा भक्ति गौ, ब्राह्मण और ऋषि-मुनियों के प्रति सदैव ही रही है। मैं आपके पास एक विशेष प्रयोजन से आया हूँ, समझिये कि कुछ माँगने के लिये आया हूँ। यदि आप मुझे वांछित वस्तु देने का वचन दें तो मैं अपनी माँग आपके सामने प्रस्तुत करू। आप के वचन न देने की दशा में मैं बिना कुछ माँगे ही वापस लौट जाऊँगा। महाराज दशरथ ने कहा, हे ब्रह्मर्षि! आप निःसंकोच अपनी माँग रखें। सम्पूर्ण विश्व जानता है कि रघुकुल के राजाओं का वचन ही उनकी प्रतिज्ञा होती है। आप माँग तो मैं अपना शीश काट कर भी आपके चरणों में रख सकता हूँ। उनके इन वचनों से आश्वस्त ऋषि विश्वामित्र बोले, राजन्! मैं अपने आश्रम में एक यज्ञ कर रहा हूँ। इस यज्ञ के पूर्णाहुति के समय मारीच और सुबाहु नाम के दो राक्षस आकर रक्त, माँस आदि अपवित्र वस्तुएँ यज्ञ वेदी में फेंक देते हैं। इस प्रकार यज्ञ पूर्ण नहीं हो पाता। ऐसा वे अनेक बार कर चुके हैं। मैं उन्हें अपने तेज से श्राप देकर नष्ट भी नहीं कर सकता क्योंकि यज्ञ करते समय क्रोध करना वर्जित है। मैं जानता हूँ कि आप मर्यादा का पालन करने वाले, ऋषि मुनियों के हितैषी एवं प्रजावत्सल राजा हैं। मैं आपसे आपके ज्येष्ठ पुत्र राम को माँगने के लिये आया हूँ ताकि वह मेरे साथ जाकर राक्षसों से मेरे यज्ञ की रक्षा कर सके और मेरा यज्ञानुष्ठान निर्विघ्न पूरा हो सके। मुझे पता है कि राम आसानी के साथ उन दोनों का संहार कर सकते हैं। अतः केवल दस दिनों के लिये राम को मुझे दे दीजिये। कार्य पूर्ण होते ही मैं उन्हें सकुशल आप के पास वापस पहुँचा दूँगा। विश्वामित्र की बात सुनकर राजा दशरथ को अत्यन्त विषाद हुआ। ऐसा लगने लगा कि अभी वे मूर्छित हो जायेंगे। फिर स्वयं को संभाल कर उन्होंने कहा, मुनिवर! राम अभी बालक है। राक्षसों का सामना करना उसके लिये सम्भव नहीं होगा। आपके यज्ञ की रक्षा करने के लिये मैं स्वयं ही जाने को तैयार हूँ। विश्वामित्र बोले, राजन्! आप तनिक भी सन्देह न करें कि राम उनका सामना नहीं कर सकते। मैंने अपने योगबल से उनकी शक्तियों का अनुमान लगा लिया है। आप निःशंक होकर राम को मेरे साथ भेज दीजिये। इस पर राजा दशरथ ने उत्तर दिया, हे मुनिश्रेष्ठ! राम ने अभी तक किसी राक्षस के माया प्रपंचों को नहीं देखा है और उसे इस प्रकार के युद्ध का अनुभव भी नहीं है। जब से उसने जन्म लिया है, मैंने उसे अपनी आँखों के सामने से कभी ओझल भी होने नहीं दिया है। उसके वियोग से मेरे प्राण निकल जावेंगे। आपसे विनय है कि कृपा करके मुझे ससैन्य चलने की आज्ञा दें। पुत्रमोह से ग्रसित होकर राजा दशरथ को अपनी प्रतिज्ञा से विचलित होते देख ऋषि विश्वामित्र आवेश में आ गये। उन्होंने कहा, राजन्! मैं नहीं जानता था कि रघुकुल में अब प्रतिज्ञा पालन करने की परम्परा समाप्त हो गई है। यदि जानता होता तो मैं कदापि नहीं आता। लो मैं अब चला जाता हूँ। बात समाप्त होते होते उनका मुख क्रोध से लाल हो गया। विश्वामित्र को इस प्रकार क्रुद्ध होते देख कर दरबारी एवं मन्त्रीगण भयभीत हो गये और किसी प्रकार के अनिष्ट की कल्पना से वे काँप उठे। गुरु वशिष्ठ ने राजा को समझाया, हे राजन्! पुत्र के मोह में ग्रसित होकर रघुकुल की मर्यादा, प्रतिज्ञा पालन और सत्यनिष्ठा को कलंकित मत कीजिये। मैं आपको परामर्श देता हूँ कि आप राम के बालक होने की बात को भूल कर एवं निःशंक होकर राम को मुनिराज के साथ भेज दीजिये। महामुनि अत्यन्त विद्वान, नीतिनिपुण और अस्त्र-शस्त्र के ज्ञाता हैं। मुनिवर के साथ जाने से राम का किसी प्रकार से भी अहित नहीं हो सकता उल्टे वे इनके साथ रह कर शस्त्र और शास्त्र विद्याओं में अत्यधिक निपुण हो जायेंगे तथा उनका कल्याण ही होगा। गुरु वशिष्ठ के वचनों से आश्वस्त होकर राजा दशरथ ने राम को बुला भेजा। राम के साथ साथ लक्ष्मण भी वहाँ चले आये। राजा दशरथ ने राम को ऋषि विश्वामित्र के साथ जाने की आज्ञा दी। पिता की आज्ञा शिरोधार्य करके राम के मुनिवर के साथ जाने के लिये तैयार हो जाने पर लक्ष्मण ने भी ऋषि विश्वामित्र से साथ चलने के लिये प्रार्थना की और अपने पिता से भी राम के साथ जाने के लिये अनुमति माँगी। अनुमति मिल जाने पर राम और लक्ष्मण सभी गुरुजनों से आशीर्वाद ले कर ऋषि विश्वामित्र के साथ चल पड़े। समस्त अयोध्यावासियों ने देख कि मन्द धीर गति से जाते हुये मुनिश्रेष्ठ विश्वामित्र के पीछे पीछे कंधों पर धनुष और तरकस में बाण रखे दोनों भाई राम और लक्ष्मण ऐसे लग रहे थे मानों ब्रह्मा जी के पीछे दोनों अश्विनी कुमार चले जा रहें हों। अद्भुत् कांति से युक्त दोनों भाई गोह की त्वचा से बने दस्ताने पहने हुये थे, हाथों में धनुष और कटि में तीक्ष्ण धार वाली कृपाणें शोभायमान हो रहीं थीं। ऐसा प्रतीत होता था मानो स्वयं शौर्य ही शरीर धारण करके चले जा रहे हों। लता विटपों के मध्य से होते हुये छः कोस लम्बा मार्ग पार करके वे पवित्र सरयू नदी के तट पर पहुँचे। मुनि विश्वामित्र ने स्नेहयुक्त मधुर वाणी में कहा, हे वत्स! अब तुम लोग सरयू के पवित्र जल से आचमन स्नानादि करके अपनी थकान दूर कर लो, फिर मैं तुम्हें प्रशिक्षण दूँगा। सर्वप्रथम मैं तुम्हें बला और अतिबला नामक विद्याएँ सिखाऊँगा। इन विद्याओं के विषय में राम के द्वारा जिज्ञासा प्रकट करने पर ऋषि विश्वामित्र ने बताया, ये दोनों ही विद्याएँ असाधारण हैं। इन विद्याओं में पारंगत व्यक्तियों की गिनती संसार के श्रेष्ठ पुरुषों में होती है। विद्वानों ने इन्हें समस्त विद्याओं की जननी बताया है। इन विद्याओं को प्राप्त करके तुम भूख और प्यास पर विजय पा जाओगे। इन तेजोमय विद्याओं की सृष्टि स्वयं ब्रह्मा जी ने की है। इन विद्याओं को पाने का अधिकारी समझ कर मैं तुम्हें इन्हें प्रदान कर रहा हूँ। राम और लक्ष्मण के स्नानादि से निवृत होने के पश्चात् विश्वामित्र जी ने उन्हें इन विद्याओं की दीक्षा दी। इन विद्याओं के प्राप्त हो जाने पर उनके मुख मण्डल पर अद्भुत् कान्ति आ गई। तीनों ने सरयू तट पर ही विश्राम किया। गुरु की सेवा करने के पश्चात् दोनों भाई तृण शैयाओं पर सो गये। By वनिता कासनियां पंजाब द्वारा

 अयोध्यापति महाराज दशरथ के दरबार में यथोचित आसन पर गुरु वशिष्ठ, मन्त्रीगण और दरबारीगण बैठे थे।   अयोध्यानरेश ने गुरु वशिष्ठ से कहा, हे गुरुदेव! जीवन तो क्षणभंगुर है और मैं वृद्धावस्था की ओर अग्रसर होते जा रहा हूँ। राम, भरत, लक्षम्ण और शत्रुघ्न चारों ही राजकुमार अब वयस्क भी हो चुके हैं। मेरी इच्छा है कि इस शरीर को त्यागने के पहले राजकुमारों का विवाह देख लूँ। अतः आपसे निवेदन है कि इन राजकुमारों के लिये योग्य कन्याओं की खोज करवायें। महाराज दशरथ की बात पूरी होते ही द्वारपाल ने ऋषि विश्वामित्र के आगमन की सूचना दी। स्वयं राजा दशरथ ने द्वार तक जाकर विश्वामित्र की अभ्यर्थना की और आदरपूर्वक उन्हें दरबार के अन्दर ले आये तथा गुरु वशिष्ठ के पास ही आसन देकर उनका यथोचित सत्कार किया।   कुशलक्षेम पूछने के पश्चात् राजा दशरथ ने विनम्र वाणी में ऋषि विश्वामित्र से कहा, हे मुनिश्रेष्ठ! आपके दर्शन से मैं कृतार्थ हुआ तथा आपके चरणों की पवित्र धूलि से यह राजदरबार और सम्पूर्ण अयोध्यापुरी धन्य हो गई। अब कृपा करके आप अपने आने का प्रयोजन बताइए। किसी भी प्रकार की आपकी सेवा करके मैं स्वयं को ...