सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

भगवान श्रीकृष्ण जब धर्म, ज्ञान आदि के साथ अपने परमधाम को पधार गये, तब इस कलियुग मे जो लोग अज्ञानरूपी अंधकार से अँधे हो रहे है, उनके लिये यह पुराणरूपी सूर्य इस समय प्रकट हुआ है। शौनकादि ऋषियों! जब महातेजस्वी श्रीशुकदेवजी महाराज वहाँ इस पुराण की कथा कह रहे थे, तब मै भी वहाँ बैठा था। वहीं मैंने उनकी कृपापूर्ण अनुमति से इसका अध्ययन किया। मेरा जैसा अध्ययन है और मेरी बुद्धि ने जितना जिस प्रकार इसको ग्रहण किया है, उसी के अनुसार इसे मैं आप लोगों को सुनाऊँगा। पुराणों के क्रम में भागवत पुराण पाँचवा स्थान है पर लोकप्रियता की दृष्टि से यह सबसे अधिक प्रसिद्ध है। वैष्णव 12 स्कंध, 335 अध्याय और 18 हज़ार श्लोकों के इस पुराण को महापुराण मानते हैं। साथ ही उच्च दार्शनिक विचारों की भी इसमें प्रचुरता है। परवर्ती कृष्ण-काव्य की आराध्या ‘राधा’ का उल्लेख भागवत में नहीं मिलता। इस पुराण का पूरा नाम श्रीमद् भागवत पुराण है। मान्यता कुछ लोग इसे महापुराण न मानकर देवी-भागवत को महापुराण मानते हैं। वे इसे उपपुराण बताते हैं। पर बहुसंख्यक मत इस पक्ष में नहीं हैं। भागवत के रचनाकाल के संबंध में भी विवाद है। दयानंद सरस्वती ने इसे तेरहवीं शताब्दी की रचना बताया है, पर अधिकांश विद्वान इसे छठी शताब्दी का ग्रंथ मानते हैं। इसे किसी दक्षिणात्य विद्वान की रचना माना जाता है। भागवत पुराण का दसवां स्कंध भक्तों में विशेष प्रिय है। By वनिता कासनियां पंजाब !! सृष्टि-उत्पत्ति के सन्दर्भ में इस पुराण में कहा गया है- एकोऽहम्बहुस्यामि। अर्थात् एक से बहुत होने की इच्छा के फलस्वरूप भगवान स्वयं अपनी माया से अपने स्वरूप में काल, कर्म और स्वभाव को स्वीकार कर लेते हैं। तब काल से तीनों गुणों- सत्व, रज और तम में क्षोभ उत्पन्न होता है तथा स्वभाव उस क्षोभ को रूपान्तरित कर देता है। तब कर्म गुणों के महत्त्व को जन्म देता है जो क्रमश: अहंकार, आकाश, वायु तेज, जल, पृथ्वी, मन, इन्द्रियाँ और सत्व में परिवर्तित हो जाते हैं। इन सभी के परस्पर मिलने से व्यष्टि-समष्टि रूप पिंड और ब्रह्माण्ड की रचना होती है। यह ब्रह्माण्ड रूपी अण्डां एक हज़ार वर्ष तक ऐसे ही पड़ा रहा। फिर भगवान ने उसमें से सहस्त्र मुख और अंगों वाले विराट पुरुष को प्रकट किया। उस विराट पुरुष के मुख से ब्राह्मण, भुजाओं से क्षत्रिओं से क्षत्रिय, जांघों से वैश्य और पैरों से शूद्र उत्पन्न हुए।

 भगवान श्रीकृष्ण जब धर्म, ज्ञान आदि के साथ अपने परमधाम को पधार गये, तब इस कलियुग मे जो लोग अज्ञानरूपी अंधकार से अँधे हो रहे है, उनके लिये यह पुराणरूपी सूर्य इस समय प्रकट हुआ है। शौनकादि ऋषियों! जब महातेजस्वी श्रीशुकदेवजी महाराज वहाँ इस पुराण की कथा कह रहे थे, तब मै भी वहाँ बैठा था। वहीं मैंने उनकी कृपापूर्ण अनुमति से इसका अध्ययन किया। मेरा जैसा अध्ययन है और मेरी बुद्धि ने जितना जिस प्रकार इसको ग्रहण किया है, उसी के अनुसार इसे मैं आप लोगों को सुनाऊँगा।


पुराणों के क्रम में भागवत पुराण पाँचवा स्थान है पर लोकप्रियता की दृष्टि से यह सबसे अधिक प्रसिद्ध है। वैष्णव 12 स्कंध, 335 अध्याय और 18 हज़ार श्लोकों के इस पुराण को महापुराण मानते हैं। साथ ही उच्च दार्शनिक विचारों की भी इसमें प्रचुरता है। परवर्ती कृष्ण-काव्य की आराध्या ‘राधा’ का उल्लेख भागवत में नहीं मिलता। इस पुराण का पूरा नाम श्रीमद् भागवत पुराण है।

मान्यता 


कुछ लोग इसे महापुराण न मानकर देवी-भागवत को महापुराण मानते हैं। वे इसे उपपुराण बताते हैं। पर बहुसंख्यक मत इस पक्ष में नहीं हैं। भागवत के रचनाकाल के संबंध में भी विवाद है। दयानंद सरस्वती ने इसे तेरहवीं शताब्दी की रचना बताया है, पर अधिकांश विद्वान इसे छठी शताब्दी का ग्रंथ मानते हैं। इसे किसी दक्षिणात्य विद्वान की रचना माना जाता है। भागवत पुराण का दसवां स्कंध भक्तों में विशेष प्रिय है।


By वनिता कासनियां पंजाब !!

सृष्टि-उत्पत्ति के सन्दर्भ में इस पुराण में कहा गया है- एकोऽहम्बहुस्यामि। अर्थात् एक से बहुत होने की इच्छा के फलस्वरूप भगवान स्वयं अपनी माया से अपने स्वरूप में काल, कर्म और स्वभाव को स्वीकार कर लेते हैं। तब काल से तीनों गुणों- सत्व, रज और तम में क्षोभ उत्पन्न होता है तथा स्वभाव उस क्षोभ को रूपान्तरित कर देता है।


तब कर्म गुणों के महत्त्व को जन्म देता है जो क्रमश: अहंकार, आकाश, वायु तेज, जल, पृथ्वी, मन, इन्द्रियाँ और सत्व में परिवर्तित हो जाते हैं। इन सभी के परस्पर मिलने से व्यष्टि-समष्टि रूप पिंड और ब्रह्माण्ड की रचना होती है। यह ब्रह्माण्ड रूपी अण्डां एक हज़ार वर्ष तक ऐसे ही पड़ा रहा। फिर भगवान ने उसमें से सहस्त्र मुख और अंगों वाले विराट पुरुष को प्रकट किया। उस विराट पुरुष के मुख से ब्राह्मण, भुजाओं से क्षत्रिओं से क्षत्रिय, जांघों से वैश्य और पैरों से शूद्र उत्पन्न हुए।



टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

गणेश जी को सबसे पहले क्यों पूजा जाता है? By वनिता कासनियां पंजाबगणेश जी की कहानीगणेश जी की पूजा हर किसी बड़े काम के पहले की जाती है । चाहे दुकान का उद्द्घाटन हो, नामकरण संस्कार हो या गर्भाधान संस्कार सबसे पहले गणेश जी को ही पूजा जाता है । हिन्दू धर्म में 33 करोड़ देवी देवता हैं लेकिन गणेश जी को ही सबसे पहले क्यों पूजा जाता है ? इससे सम्बंधित क्या पौराणिक कथा है आपको बताएँगे आज, बने रहिये अंत तक हमारे साथ ।गणेश जी को सभी देवी देवताओं में प्रधान क्यों माना जाता है?आपको बताते हैं यह पौराणिक कथा, एक बार की बात है 33 करोड़ देवी देवताओं में प्रतिस्पर्धा हुयी जिसमे जीतने वाले देव को किसी भी शुभ काम के पहले पूजा जायेगा । प्रतिस्पर्धा के अनुसार जो भी देवी देवता ब्रम्हांड के तीन चक्कर लगाकर सबसे पहले वापिस आएगा उसे ही अधिपति माना जायेगा । देवताओं के लिए ब्रम्हांड के तीन चक्कर लगाना कोई कठिन काम नहीं है ।परन्तु इस प्रतिस्पर्धा में एक मोड़ था, इस दौड़ में हिस्सा ले रहे हर देवी देवता की भेंट नारद जी से हो जाती थी । अब नारद मुनि को देखकर उनको प्रणाम करना ही पड़ता था । नारद जी परम वैष्णव हैं इसलिए वो प्रणाम करने वाले सभी देवी देवताओं को हरि कथा सुनाते थे । हरि कथा सुनने वाले देवी देवता दौड़ में जीत नहीं सकते थे इसलिए कुछ देवी देवता नारद जी को प्रणाम किये बिना ही निकल जाते थे।गणेश जी को जब इस दौड़ का पता चला तो उन्होंने भी अपने पिता से इसमें भाग लेने के बारे में पूछा और उनको इस दौड़ में हिस्सा लेने की अनुमति मिल गयी । गणेश जी के वाहन थे चूहा जबकि अन्य देवी देवताओं के वाहन गति में तेज और हवा में उड़ने वाले थे । अन्य देवी देवता नारद जी को प्रणाम किये बिना ही आगे बड़ जाते थे परन्तु गजानन ने नारद जी को प्रणाम किया और उनसे हरि कथा भी सुनी । नारद जी ने चेतावनी दी कि अगर वो हरि कथा सुनेंगे तो प्रतिस्पर्धा जीत नहीं पाएंगे लेकिन गजानन ने हरि कथा सुनने का फैसला किया ।नारद जी ने बताया एक रहस्यहरि कथा खत्म हो जाने के बाद नारद जी ने पूछा यह दौड़ किस लिए? तब गणेश जी ने बताया कि सबसे पहले ब्रम्हांड की तीन चक्कर लगाने वाले देव को देवताओं में अधिपति का खिताब मिलेगा और उसे हर किसी सुभ काम में सबसे पहले पूजा जायेगा । तब नारद जी ने गजानन को ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति के बारे में बताया । नारद जी ने कहा कि ब्रम्हांड के स्रोत है भगवान और यदि गणेश जी भगवान के तीन चकार लगा लें तो वे इस प्रतिस्पर्धा को जीत जायेंगे ।नारद जी ने बताया कि भगवान के नाम में और भगवान में कोई अंतर नहीं है । गजानन ने ऐसा ही किया और राम नाम अपनी सूंढ़ में लिखकर उसके तीन चक्कर लगा लिए । इस तरह करने के बाद नारद जी ने आशीर्वाद दिया कि गणेश दौड़ में जीत चुके हैं । गजानन ने आशीर्वाद लेकर दौड़ना शुरू कर दिया । जब उन्होंने पीछे देखा तो पता चला कि वे सभी देवी देवताओं के आगे थे । कुछ समय में गणेश जी यह प्रतिस्पर्धा जीत गए और गणेश जी को अधिपति कहा गया ।जब आप जय गणेश देवा आरती गाते हैं तो उसमे गणेश जी को अन्य कई नामों से बुलाते हैं । आपको यह जानकार हैरानी होगी कि गजानन के नामों के पीछे भी पौराणिक कथाएं मौजूद हैं । चलिए आपको बताते हैं कि गणेश जी को एकदन्त, गजानन या मंगल मूर्ती क्यों कहते हैं?गणेश जी के अन्य नामअन्य नामों से भी गणेश जी को बुलाया जाता है जैसे कि गणपति अर्थात जो शिव जी के गणों में सबसे प्रधान हैं । इनका एक नाम है गजानन यानि इनके मस्तक पर हाथी का सर लगा हुआ है । एक नाम है विनायक जिसका अर्थ है ये ज्ञान के भण्डार हैं । एक नाम है एकदन्त यानि इनके पास एक ही दांत है जो बड़ा विशेष है । आपको पता होगा गजानन ने महाभारत लिखने में भी योगदान दिया है । उन्होंने अपने इसी एक दांत से महाभारत ग्रन्थ को लिखा था ।एकदन्त का एक दांत किसने तोड़ा?एक बार की बात है परशुराम जी शिव जी से मिलने गए । गणेश जी ने कहा कि पिता जी अभी विश्राम कर रहे हैं इसलिए आप प्रवेश नहीं कर सकते । यदि आप परशुराम जी के यश से तो भली भांति परिचित नहीं हैं तो यह जान लीजिये कि उन्होंने पृथ्वी को 21 बार छत्रियों से वीहीन कर दिया था । परशुराम जी को रोकने वाला तीनो लोकों में कोई नहीं था जब वो छात्रिओं को मारने निकलते थे । गजानन की आयु उस समय काफी कम थी । एक बालक के द्वारा परशुराम जी का रोका जाना मूर्खता था और इसलिए परशुराम ने गणेश जी का एक दांत तोड़ दिया और वे एकदन्त कहलाये ।यह भी पड़ें – बेटी को घर की लक्ष्मी क्यों कहा जाता है?गणेश जी का सिर किसने काटा?गणेश जी आज्ञा पालन में निपुण थे । एक बार की बात है कि गणेश जी ने अपनी माँ की आज्ञा का पालन करने के चक्कर में शिव जी से ही युद्ध कर लिया । दरसल गणेश जी को माता पारवती ने आदेश दिया था कि किसी को भी अंदर मत आने देना । जब शिव जी ने अंदर जाने की कोशिस की तो बालक गणेश ने उन्हें रोका । शिव जी ने बताया कि वो गणेश जी के पिता हैं और इसलिए उन्हें अंदर जाने से नहीं रोका जाना चाहिए । गणेश जी नहीं माने और शिव ने उनका सर काट दिया । यह देखकर माँ पारवती विलाप करने लगीं और शिव जी ने एक हाथी का सिर गणेश जी को लगवा दिया । तभी से उनको गजानन कहा जाता है ।मित्रो उम्मीद करते हैं आजकी कहानी आपको पसंद आयी होगी । इसे शेयर करें और हमारा व्हाट्सप्प ग्रुप ज्वाइन करें । ग्रुप ज्वाइन करने के लिए यहाँ क्लिक करें – Join Whatsapp । फिर मिलते हैं एक और पौराणिक कहानी के साथ ।

गणेश जी को सबसे पहले क्यों पूजा जाता है?   By  वनिता कासनियां पंजाब गणेश जी की कहानी गणेश जी की पूजा हर किसी बड़े काम के पहले की जाती है । चाहे दुकान का उद्द्घाटन हो, नामकरण संस्कार हो या गर्भाधान संस्कार सबसे पहले गणेश जी को ही पूजा जाता है । हिन्दू धर्म में 33 करोड़ देवी देवता हैं लेकिन गणेश जी को ही सबसे पहले क्यों पूजा जाता है ? इससे सम्बंधित क्या पौराणिक कथा है आपको बताएँगे आज, बने रहिये अंत तक हमारे साथ । गणेश जी को सभी देवी देवताओं में प्रधान क्यों माना जाता है? आपको बताते हैं यह पौराणिक कथा, एक बार की बात है 33 करोड़ देवी देवताओं में प्रतिस्पर्धा हुयी जिसमे जीतने वाले देव को किसी भी शुभ काम के पहले पूजा जायेगा । प्रतिस्पर्धा के अनुसार जो भी देवी देवता ब्रम्हांड के तीन चक्कर लगाकर सबसे पहले वापिस आएगा उसे ही अधिपति माना जायेगा । देवताओं के लिए ब्रम्हांड के तीन चक्कर लगाना कोई कठिन काम नहीं है । परन्तु इस प्रतिस्पर्धा में एक मोड़ था, इस दौड़ में हिस्सा ले रहे हर देवी देवता की भेंट नारद जी से हो जाती थी । अब  नारद मुनि  को देखकर उनको प्रणाम करना ही पड़ता थ...

उन्नीसवें और बीसवें अवतारों में उन्होने यदुवंश मे बलराम और श्रीकृष्ण के नाम से प्रकट होकर पृथ्वी का भार उतारा। उसके बाद कलियुग आ जाने पर मगधदेश मे देवताओ के द्वेषी दैत्यों को मोहित करने के लिये अजन के पुत्र रूप में आपका बुद्धावतार होगा। इसके भी बहुत पीछे जब कलियुग का अंत समीप होगा और राजा लोग प्रायः लुटेरे हो जायेंगे, तब जगत के रक्षक भगवान विष्णुयश नामक ब्राह्मण के घर कल्किरूप में अवतीर्ण होंगे। By वनिता कासनियां पंजाब ? शौनकादि ऋषियों! जैसे अगाध सरोवर से हजारों छोटे-छोटे नाले निकलते है, वैसे ही सत्त्वनिधि भगवान श्रीहरि के असंख्य अवतार हुआ करते हैं। ऋषि, मनु, देवता, प्रजापति, मनुपुत्र और जितने भी महान शक्तिशाली हैं, वे सब-के-सब भगवान के ही अंश हैं। ये सब अवतार तो भगवान के अंशावतार अथवा कलावतार हैं, जब लोग दैत्यों के अत्याचारों से व्याकुल हो उठते हैं, तब युग-युग में अनेक रूप धारण करके भगवान उनकी रक्षा करते हैं। भगवान के दिव्य जन्मों की यह कथा अत्यंत गोपनीय-रहस्यमयी है, जो मनुष्य एकाग्रचित्त से नियमपूर्वक सांयकाल और प्रातःकाल प्रेम से इसका पाठ करता है, वह सब दुःखों से छूट जाता है।

  उन्नीसवें और बीसवें अवतारों में उन्होने यदुवंश मे बलराम और श्रीकृष्ण के नाम से प्रकट होकर पृथ्वी का भार उतारा। उसके बाद कलियुग आ जाने पर मगधदेश मे देवताओ के द्वेषी दैत्यों को मोहित करने के लिये अजन के पुत्र रूप में आपका बुद्धावतार होगा। इसके भी बहुत पीछे जब कलियुग का अंत समीप होगा और राजा लोग प्रायः लुटेरे हो जायेंगे, तब जगत के रक्षक भगवान विष्णुयश नामक ब्राह्मण के घर कल्किरूप में अवतीर्ण होंगे। By वनिता कासनियां पंजाब ? शौनकादि ऋषियों! जैसे अगाध सरोवर से हजारों छोटे-छोटे नाले निकलते है, वैसे ही सत्त्वनिधि भगवान श्रीहरि के असंख्य अवतार हुआ करते हैं। ऋषि, मनु, देवता, प्रजापति, मनुपुत्र और जितने भी महान शक्तिशाली हैं, वे सब-के-सब भगवान के ही अंश हैं। ये सब अवतार तो भगवान के अंशावतार अथवा कलावतार हैं, जब लोग दैत्यों के अत्याचारों से व्याकुल हो उठते हैं, तब युग-युग में अनेक रूप धारण करके भगवान उनकी रक्षा करते हैं। भगवान के दिव्य जन्मों की यह कथा अत्यंत गोपनीय-रहस्यमयी है, जो मनुष्य एकाग्रचित्त से नियमपूर्वक सांयकाल और प्रातःकाल प्रेम से इसका पाठ करता है, वह सब दुःखों से छूट जाता है।

भगवान की लीला अमोध है। वे लीला से ही इस संसार का सृजन, पालन और संहार करते हैं, किंतु इसमे आसक्त नही होते। प्राणियों के अंतःकरण मे छिपे रहकर ज्ञानेंद्रिय और मन के नियंता के रूप में उनके विषयों को ग्रहण भी करते है, परंतु उनसे अलग रहते हैं, वे परम स्वतंत्र है–ये विषय कभी उन्हे लिप्त नहीं कर सकते। जैसे अनजान मनुष्य जादूगर अथवा नट के संकल्प और वचनों से की हुई करामात को नही समझ पाते, वैसे ही अपने संकल्प और वेदवाणी के द्वारा भगवान के प्रकट किये हुये इन नाना नाम और रूपों को तथा उनकी लीलाओ को कुबुद्धि जीव बहुत सी तर्क-युक्तियों के द्वारा नही पहचान सकता।

 भगवान की लीला अमोध है। वे लीला से ही इस संसार का सृजन, पालन और संहार करते हैं, किंतु इसमे आसक्त नही होते। प्राणियों के अंतःकरण मे छिपे रहकर ज्ञानेंद्रिय और मन के नियंता के रूप में उनके विषयों को ग्रहण भी करते है, परंतु उनसे अलग रहते हैं, वे परम स्वतंत्र है–ये विषय कभी उन्हे लिप्त नहीं कर सकते। जैसे अनजान मनुष्य जादूगर अथवा नट के संकल्प और वचनों से की हुई करामात को नही समझ पाते, वैसे ही अपने संकल्प और वेदवाणी के द्वारा भगवान के प्रकट किये हुये इन नाना नाम और रूपों को तथा उनकी लीलाओ को कुबुद्धि जीव बहुत सी तर्क-युक्तियों के द्वारा नही पहचान सकता।