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राष्ट्र हिंदू धर्म में श्रीगणेश के अवतार By वनिता कासनियां पंजाब श्रीगणेश के अवतारहम सबने भगवान विष्णु के दशावतार और भगवान शंकर के १९ अवतारों के विषय में सुना है। किन्तु क्या आपको श्रीगणेश के अवतारों के विषय में पता है? वैसे तो श्रीगणेश के कई रूप और अवतार हैं किन्तु उनमें से आठ अवतार जिसे "अष्टरूप" कहते हैं, वो अधिक प्रसिद्ध हैं। इन आठ अवतारों की सबसे बड़ी विशेषता ये है कि इन्ही सभी अवतारों में श्रीगणेश ने अपने शत्रुओं का वध नहीं किया बल्कि उनके प्रताप से वे सभी स्वतः उनके भक्त हो गए। आइये उसके विषय में कुछ जानते हैं।वक्रतुंड: मत्स्यरासुर नामक एक राक्षस था जो महादेव का बड़ा भक्त था। उसने भगवान शंकर की तपस्या कर ये वरदान प्राप्त किया कि उसे किसी का भय ना हो। वरदान पाने के बाद मत्सरासुर ने देवताओं को प्रताडि़त करना शुरू कर दिया। उसके दो पुत्र थे - सुंदरप्रिय और विषयप्रिय जो अपने पिता के समान ही अत्याचारी थे। उनके अत्याचार से तंग आकर सभी देवता महादेव की शरण में पहुंचे। शिवजी ने उन्हें श्रीगणेश का आह्वान करने को कहा। देवताओं की आराधना पर श्रीगणेश ने विकट सूंड वाले "वक्रतुंड" अवतार लिया और मत्सरासुर को ललकारा। अपने पिता की रक्षा के लिए सुंदरप्रिय और विषप्रिय दोनों ने उनपर आक्रमण किया किन्तु श्रीगणेश ने उन्हें तत्काल अपनी सूंड में लपेट कर मार डाला। ये देख कर मत्सरासुर ने अपनी पराजय स्वीकार की और श्रीगणेश का भक्त बन गया।एकदंत: एक बार महर्षि च्यवन को एक पुत्र की इच्छा हुई तो उन्होंने अपने तपोबल से मद नाम के राक्षस की रचना की। वह च्यवन का पुत्र कहलाया। मद ने दैत्यगुरु शुक्राचार्य से शिक्षा ली और हर प्रकार की विद्या और युद्धकला में निपुण बन गया। अपनी सिद्धियों के बल पर उसने देवताओं का विरोध शुरू कर दिया और सभी देवता उससे प्रताडि़त रहने लगे। सभी देवों ने एक स्वर में श्रीगणेश को पुकारा। इनकी रक्षा के लिए तब वे "एकदंत" के रूप में प्रकट हुए। उनकी चार भुजाएं और एक दांत था। वे चतुर्भुज रूप में थे जिनके हाथ में पाश, परशु, अंकुश और कमल था। एकदंत ने देवताओं को अभय का वरदान दिया और मदासुर को युद्ध में पराजित किया।महोदर: जब कार्तिकेय जी ने तारकासुर का वध कर दिया तो दैत्य गुरु शुक्राचार्य ने मोहासुर नाम के दैत्य को देवताओं के विरुद्ध खड़ा किया। वे अनेक अस्त्र-शस्त्रों का ज्ञाता था और उसका शरीर बहुत विशाल था। उसकी शक्ति की भी कोई सीमा नहीं थी। जब उस विकट रूप में मोहासुर देवताओं के सामने पहुंचा तो वे भयभीत हो गए। तब देवताओं की रक्षा के लिए श्रीगणेश ने "महोदर" अवतार लिया। उस रूप में उनका उदर अर्थात पेट इतना बड़ा था कि उसने आकाश को आच्छादित कर दिया। जब वे मोहासुर के समक्ष पहुंचे तो उनका वो अद्भुत रूप देख कर मोहासुर ने बिना युद्ध के ही आत्मसमर्पण कर दिया। उसके बाद उसने देव महोदर को ही अपना इष्ट बना लिया।विकट: जालंधर और वृंदा की कथा तो हम सभी जानते हैं। जब श्रीहरि ने जालंधर के विनाश हेतु उसकी पत्नी वृंदा का सतीत्व भंग किया तो महादेव ने जालंधर का वध कर दिया। तत्पश्चात वृंदा ने आत्मदाह कर लिया और उन्ही के क्रोध से कामासुर का एक महापराक्रमी दैत्य उत्पन्न हुआ। उसने महादेव से कई अवतार प्राप्त कर त्रिलोक पर अधिकार जमा लिया। त्रिलोक को त्रस्त जान कर श्रीगणेश ने "विकट" रूप में अवतार लिया और अपने उस अवतार में उन्होंने अपने बड़े भाई कार्तिकेय के मयूर को अपना वाहन बनाया। उसके बाद उन्होंने कामासुर को घोर युद्ध कर उसे पराजित किया और देवताओं को निष्कंटक किया। बाद में कामासुर श्रीगणेश का भक्त बन गया। गजानन: एक बार धनपति कुबेर को अपने धन पर अहंकार और लोभ हो गया। उनके लोभ से लोभासुर नाम के असुर का जन्म हुआ। मार्गदर्शन के लिए वो शुक्राचार्य की शरण में गया। शुक्राचार्य ने उसे महादेव की तपस्या करने का आदेश दिया। उसने भोलेनाथ की घोर तपस्या की जिसके बाद महादेव ने उसे त्रिलोक विजय का वरदान दे दिया। उस वरदान के मद में लोभासुर स्वर्ग, पृथ्वी और पाताल का अधिपति हो गया। सारे देवता स्वर्ग से हाथ धोकर अपने गुरु बृहस्पति के पास गए। देवगुरु ने उन्हें श्रीगणेश की तपस्या करने को कहा। देवराज इंद्र के साथ सभी देवों ने श्रीगणेश की तपस्या की जिससे श्रीगणेश प्रसन्न हुए और उन्होंने देवताओं को आश्वासन दिया कि वे अवश्य उनका उद्धार करेंगे। गणेशजी "गजानन" रूप में पृथ्वी पर आये और अपने मूषक द्वारा लोभासुर को युद्ध का सन्देश भेजा। जब शुक्राचार्य ने जाना कि गजानन स्वयं आये हैं तो लोभासुर की पराजय निश्चित जान कर उन्होंने उसे श्रीगणेश की शरण में जाने का उपदेश दिया। अपनी गुरु की बात सुनकर लोभासुर ने बिना युद्ध किए ही अपनी पराजय स्वीकार कर ली और उनका भक्त बन गया।लंबोदर: क्रोधासुर नाम नाम का एक दैत्य था जो अजेय बनना चाहता था। उसने इसी इच्छा से भगवान सूर्यनारायण की तपस्या की और उनसे ब्रह्माण्ड विजय का वरदान प्राप्त कर लिया। वरदान प्राप्त करने के बाद क्रोधासुर विश्वविजय के अभियान पर निकला। उसे स्वर्ग की ओर आते देख इंद्र और सभी देवता भयभीत हो गए। उन्होंने श्रीगणेश से प्रार्थना की कि वो किसी भी प्रकार क्रोधासुर को स्वर्ग पहुँचने से रोकें। तब वे "लम्बोदर" का रूप लेकर क्रोधासुर के पास आये और उसे समझाया कि वो कभी भी अजेय नहीं बन सकता। इस पर क्रोधासुर उनकी बात ना मान कर स्वर्ग की ओर बढ़ने लगा। ये देख कर श्रीगणेश ने अपने उदर (पेट) द्वारा उस मार्ग को बंद कर दिया। ये देख कर क्रोधासुर दूसरे मार्ग की ओर मुड़ा। तब लम्बोदर रुपी श्रीगणेश ने अपने उदर को विस्तृत कर वो मार्ग भी रुद्ध कर दिया। क्रोधासुर जिस भी मार्ग पर जाता, श्रीगणेश अपने उदर से उस मार्ग को बंद कर देते। ये देख कर क्रोधासुर का अभिमान समाप्त हुआ और वो श्रीगणेश का भक्त बन गया। उनके आदेश पर उसने अपना युद्ध अभियान बंद कर दिया और पाताल में जाकर बस गया।विघ्नराज: एक बार माता पार्वती कैलाश पर अपनी सखियों के साथ बातचीत कर रही थी। उसी दौरान वे जोर से हंस पड़ीं। उनकी हंसी से एक विशाल पुरुष की उत्पत्ति हुई। चूँकि उसका जन्म माता पार्वती के ममता भाव से हुआ था इसीलिए उन्होंने उसका नाम मम रखा। बाद में मम देवी पार्वती की आज्ञा से वन में तपस्या करने चला गया। वही वो असुरराज शंबरासुर से मिला। उसे योग्य जान कर शम्बरासुर ने उसे कई प्रकार की आसुरी शक्तियां सिखा दीं। बाद में शम्बरासुर ने मम को श्री गणेश की उपासना करने को कहा। मम ने गणपति को प्रसन्न कर अपार शक्ति का स्वामी बन गया। तप पूर्ण होने के बाद शम्बरासुर ने उसका विवाह अपनी पुत्री मोहिनी के साथ कर दिया। जब दैत्यगुरु शुक्राचार्य ने मम के तप के बारे में सुना तो उन्होंने उसे दैत्यराज के पद पर विभूषित कर दिया। अपने बल के मद में आकर ममासुर ने देवताओं पर आक्रमण किया और उन्हें परास्त कर कारागार में डाल दिया। तब उसी कारावास में देवताओं ने गणेश की उपासना की जिससे प्रसन्न हो श्रीगणेश "विघ्नराज" (विघ्नेश्वर) के रूप में अवतरित हुए। उन्होंने ममासुर को युद्ध के लिए ललकारा और उसे परास्त कर उसका मान मर्दन किया। अंततः ममासुर उनकी शरण में आ गया। तत्पश्चात उन्होंने देवताओं को मुक्त कर उनके विघ्न का नाश किया। धूम्रवर्ण: एक बार भगवान सूर्यनारायण को छींक आ गई और उनकी छींक से एक दैत्य की उत्पत्ति हुई। उस दैत्य का नाम उन्होंने अहम रखा। उसने दैत्यगुरु शुक्राचार्य से शिक्षा ली और अहंतासुर नाम से प्रसिद्ध हुआ। बाद में उसने अपना स्वयं का राज्य बसाया और तप कर श्रीगणेश को प्रसन्न किया। उनसे उसे अनेकानेक वरदान प्राप्त हुए। वरदान प्राप्त कर वो निरंकुश हो गया और बहुत अत्याचार और अनाचार फैलाया। तब उसे रोकने के लिए श्री गणेश ने धुंए के रंग वाले रूप में अवतार लिया और उसी कारण उनका नाम "धूम्रवर्ण" पड़ा। उनके हाथ में एक दुर्जय पाश था जिससे सदैव ज्वालाएं निकलती रहती थीं। धूम्रवर्ण के रुप में गणेश जी ने अहंतासुर को उस पाश से जकड लिया। अहम् ने उस पाश से छूटने का बड़ा प्रयास किया किन्तु सफल नहीं हुआ। अंत में उसने अपनी पराजय स्वीकार कर ली और देव धूम्रवर्ण की शरण में आ गया। तब उन्होंने अहंतासुर को अपनी अनंत भक्ति प्रदान की।

राष्ट्र हिंदू धर्म में श्रीगणेश के अवतार

श्रीगणेश के अवतार
हम सबने भगवान विष्णु के दशावतार और भगवान शंकर के १९ अवतारों के विषय में सुना है। किन्तु क्या आपको श्रीगणेश के अवतारों के विषय में पता है? वैसे तो श्रीगणेश के कई रूप और अवतार हैं किन्तु उनमें से आठ अवतार जिसे "अष्टरूप" कहते हैं, वो अधिक प्रसिद्ध हैं। इन आठ अवतारों की सबसे बड़ी विशेषता ये है कि इन्ही सभी अवतारों में श्रीगणेश ने अपने शत्रुओं का वध नहीं किया बल्कि उनके प्रताप से वे सभी स्वतः उनके भक्त हो गए। आइये उसके विषय में कुछ जानते हैं।
  1. वक्रतुंड: मत्स्यरासुर नामक एक राक्षस था जो महादेव का बड़ा भक्त था। उसने भगवान शंकर की तपस्या कर ये वरदान प्राप्त किया कि उसे किसी का भय ना हो। वरदान पाने के बाद मत्सरासुर ने देवताओं को प्रताडि़त करना शुरू कर दिया। उसके दो पुत्र थे - सुंदरप्रिय और विषयप्रिय जो अपने पिता के समान ही अत्याचारी थे। उनके अत्याचार से तंग आकर सभी देवता महादेव की शरण में पहुंचे। शिवजी ने उन्हें श्रीगणेश का आह्वान करने को कहा। देवताओं की आराधना पर श्रीगणेश ने विकट सूंड वाले "वक्रतुंड" अवतार लिया और मत्सरासुर को ललकारा। अपने पिता की रक्षा के लिए सुंदरप्रिय और विषप्रिय दोनों ने उनपर आक्रमण किया किन्तु श्रीगणेश ने उन्हें तत्काल अपनी सूंड में लपेट कर मार डाला। ये देख कर मत्सरासुर ने अपनी पराजय स्वीकार की और श्रीगणेश का भक्त बन गया।
  2. एकदंत: एक बार महर्षि च्यवन को एक पुत्र की इच्छा हुई तो उन्होंने अपने तपोबल से मद नाम के राक्षस की रचना की। वह च्यवन का पुत्र कहलाया। मद ने दैत्यगुरु शुक्राचार्य से शिक्षा ली और हर प्रकार की विद्या और युद्धकला में निपुण बन गया। अपनी सिद्धियों के बल पर उसने देवताओं का विरोध शुरू कर दिया और सभी देवता उससे प्रताडि़त रहने लगे। सभी देवों ने एक स्वर में श्रीगणेश को पुकारा। इनकी रक्षा के लिए तब वे "एकदंत" के रूप में प्रकट हुए। उनकी चार भुजाएं और एक दांत था। वे चतुर्भुज रूप में थे जिनके हाथ में पाश, परशु, अंकुश और कमल था। एकदंत ने देवताओं को अभय का वरदान दिया और मदासुर को युद्ध में पराजित किया।
  3. महोदर: जब कार्तिकेय जी ने तारकासुर का वध कर दिया तो दैत्य गुरु शुक्राचार्य ने मोहासुर नाम के दैत्य को देवताओं के विरुद्ध खड़ा किया। वे अनेक अस्त्र-शस्त्रों का ज्ञाता था और उसका शरीर बहुत विशाल था। उसकी शक्ति की भी कोई सीमा नहीं थी। जब उस विकट रूप में मोहासुर देवताओं के सामने पहुंचा तो वे भयभीत हो गए। तब देवताओं की रक्षा के लिए श्रीगणेश ने "महोदर" अवतार लिया। उस रूप में उनका उदर अर्थात पेट इतना बड़ा था कि उसने आकाश को आच्छादित कर दिया। जब वे मोहासुर के समक्ष पहुंचे तो उनका वो अद्भुत रूप देख कर मोहासुर ने बिना युद्ध के ही आत्मसमर्पण कर दिया। उसके बाद उसने देव महोदर को ही अपना इष्ट बना लिया।
  4. विकट: जालंधर और वृंदा की कथा तो हम सभी जानते हैं। जब श्रीहरि ने जालंधर के विनाश हेतु उसकी पत्नी वृंदा का सतीत्व भंग किया तो महादेव ने जालंधर का वध कर दिया। तत्पश्चात वृंदा ने आत्मदाह कर लिया और उन्ही के क्रोध से कामासुर का एक महापराक्रमी दैत्य उत्पन्न हुआ। उसने महादेव से कई अवतार प्राप्त कर त्रिलोक पर अधिकार जमा लिया। त्रिलोक को त्रस्त जान कर श्रीगणेश ने "विकट" रूप में अवतार लिया और अपने उस अवतार में उन्होंने अपने बड़े भाई कार्तिकेय के मयूर को अपना वाहन बनाया। उसके बाद उन्होंने कामासुर को घोर युद्ध कर उसे पराजित किया और देवताओं को निष्कंटक किया। बाद में कामासुर श्रीगणेश का भक्त बन गया। 
  5. गजानन: एक बार धनपति कुबेर को अपने धन पर अहंकार और लोभ हो गया। उनके लोभ से लोभासुर नाम के असुर का जन्म हुआ। मार्गदर्शन के लिए वो शुक्राचार्य की शरण में गया। शुक्राचार्य ने उसे महादेव की तपस्या करने का आदेश दिया। उसने भोलेनाथ की घोर तपस्या की जिसके बाद महादेव ने उसे त्रिलोक विजय का वरदान दे दिया। उस वरदान के मद में लोभासुर स्वर्ग, पृथ्वी और पाताल का अधिपति हो गया। सारे देवता स्वर्ग से हाथ धोकर अपने गुरु बृहस्पति के पास गए। देवगुरु ने उन्हें श्रीगणेश की तपस्या करने को कहा। देवराज इंद्र के साथ सभी देवों ने श्रीगणेश की तपस्या की जिससे श्रीगणेश प्रसन्न हुए और उन्होंने देवताओं को आश्वासन दिया कि वे अवश्य उनका उद्धार करेंगे। गणेशजी "गजानन" रूप में पृथ्वी पर आये और अपने मूषक द्वारा लोभासुर को युद्ध का सन्देश भेजा। जब शुक्राचार्य ने जाना कि गजानन स्वयं आये हैं तो लोभासुर की पराजय निश्चित जान कर उन्होंने उसे श्रीगणेश की शरण में जाने का उपदेश दिया। अपनी गुरु की बात सुनकर लोभासुर ने बिना युद्ध किए ही अपनी पराजय स्वीकार कर ली और उनका भक्त बन गया।
  6. लंबोदर: क्रोधासुर नाम नाम का एक दैत्य था जो अजेय बनना चाहता था। उसने इसी इच्छा से भगवान सूर्यनारायण की तपस्या की और उनसे ब्रह्माण्ड विजय का वरदान प्राप्त कर लिया। वरदान प्राप्त करने के बाद क्रोधासुर विश्वविजय के अभियान पर निकला। उसे स्वर्ग की ओर आते देख इंद्र और सभी देवता भयभीत हो गए। उन्होंने श्रीगणेश से प्रार्थना की कि वो किसी भी प्रकार क्रोधासुर को स्वर्ग पहुँचने से रोकें। तब वे "लम्बोदर" का रूप लेकर क्रोधासुर के पास आये और उसे समझाया कि वो कभी भी अजेय नहीं बन सकता। इस पर क्रोधासुर उनकी बात ना मान कर स्वर्ग की ओर बढ़ने लगा। ये देख कर श्रीगणेश ने अपने उदर (पेट) द्वारा उस मार्ग को बंद कर दिया। ये देख कर क्रोधासुर दूसरे मार्ग की ओर मुड़ा। तब लम्बोदर रुपी श्रीगणेश ने अपने उदर को विस्तृत कर वो मार्ग भी रुद्ध कर दिया। क्रोधासुर जिस भी मार्ग पर जाता, श्रीगणेश अपने उदर से उस मार्ग को बंद कर देते। ये देख कर क्रोधासुर का अभिमान समाप्त हुआ और वो श्रीगणेश का भक्त बन गया। उनके आदेश पर उसने अपना युद्ध अभियान बंद कर दिया और पाताल में जाकर बस गया।
  7. विघ्नराज: एक बार माता पार्वती कैलाश पर अपनी सखियों के साथ बातचीत कर रही थी। उसी दौरान वे जोर से हंस पड़ीं। उनकी हंसी से एक विशाल पुरुष की उत्पत्ति हुई। चूँकि उसका जन्म माता पार्वती के ममता भाव से हुआ था इसीलिए उन्होंने उसका नाम मम रखा। बाद में मम देवी पार्वती की आज्ञा से वन में तपस्या करने चला गया। वही वो असुरराज शंबरासुर से मिला। उसे योग्य जान कर शम्बरासुर ने उसे कई प्रकार की आसुरी शक्तियां सिखा दीं। बाद में शम्बरासुर ने मम को श्री गणेश की उपासना करने को कहा। मम ने गणपति को प्रसन्न कर अपार शक्ति का स्वामी बन गया। तप पूर्ण होने के बाद शम्बरासुर ने उसका विवाह अपनी पुत्री मोहिनी के साथ कर दिया। जब दैत्यगुरु शुक्राचार्य ने मम के तप के बारे में सुना तो उन्होंने उसे दैत्यराज के पद पर विभूषित कर दिया। अपने बल के मद में आकर ममासुर ने देवताओं पर आक्रमण किया और उन्हें परास्त कर कारागार में डाल दिया। तब उसी कारावास में देवताओं ने गणेश की उपासना की जिससे प्रसन्न हो श्रीगणेश "विघ्नराज" (विघ्नेश्वर) के रूप में अवतरित हुए। उन्होंने ममासुर को युद्ध के लिए ललकारा और उसे परास्त कर उसका मान मर्दन किया। अंततः ममासुर उनकी शरण में आ गया। तत्पश्चात उन्होंने देवताओं को मुक्त कर उनके विघ्न का नाश किया। 
  8. धूम्रवर्ण: एक बार भगवान सूर्यनारायण को छींक आ गई और उनकी छींक से एक दैत्य की उत्पत्ति हुई। उस दैत्य का नाम उन्होंने अहम रखा। उसने दैत्यगुरु शुक्राचार्य से शिक्षा ली और अहंतासुर नाम से प्रसिद्ध हुआ। बाद में उसने अपना स्वयं का राज्य बसाया और तप कर श्रीगणेश को प्रसन्न किया। उनसे उसे अनेकानेक वरदान प्राप्त हुए। वरदान प्राप्त कर वो निरंकुश हो गया और बहुत अत्याचार और अनाचार फैलाया। तब उसे रोकने के लिए श्री गणेश ने धुंए के रंग वाले रूप में अवतार लिया और उसी कारण उनका नाम "धूम्रवर्ण" पड़ा। उनके हाथ में एक दुर्जय पाश था जिससे सदैव ज्वालाएं निकलती रहती थीं। धूम्रवर्ण के रुप में गणेश जी ने अहंतासुर को उस पाश से जकड लिया। अहम् ने उस पाश से छूटने का बड़ा प्रयास किया किन्तु सफल नहीं हुआ। अंत में उसने अपनी पराजय स्वीकार कर ली और देव धूम्रवर्ण की शरण में आ गया। तब उन्होंने अहंतासुर को अपनी अनंत भक्ति प्रदान की।

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गणेश जी को सबसे पहले क्यों पूजा जाता है? By वनिता कासनियां पंजाबगणेश जी की कहानीगणेश जी की पूजा हर किसी बड़े काम के पहले की जाती है । चाहे दुकान का उद्द्घाटन हो, नामकरण संस्कार हो या गर्भाधान संस्कार सबसे पहले गणेश जी को ही पूजा जाता है । हिन्दू धर्म में 33 करोड़ देवी देवता हैं लेकिन गणेश जी को ही सबसे पहले क्यों पूजा जाता है ? इससे सम्बंधित क्या पौराणिक कथा है आपको बताएँगे आज, बने रहिये अंत तक हमारे साथ ।गणेश जी को सभी देवी देवताओं में प्रधान क्यों माना जाता है?आपको बताते हैं यह पौराणिक कथा, एक बार की बात है 33 करोड़ देवी देवताओं में प्रतिस्पर्धा हुयी जिसमे जीतने वाले देव को किसी भी शुभ काम के पहले पूजा जायेगा । प्रतिस्पर्धा के अनुसार जो भी देवी देवता ब्रम्हांड के तीन चक्कर लगाकर सबसे पहले वापिस आएगा उसे ही अधिपति माना जायेगा । देवताओं के लिए ब्रम्हांड के तीन चक्कर लगाना कोई कठिन काम नहीं है ।परन्तु इस प्रतिस्पर्धा में एक मोड़ था, इस दौड़ में हिस्सा ले रहे हर देवी देवता की भेंट नारद जी से हो जाती थी । अब नारद मुनि को देखकर उनको प्रणाम करना ही पड़ता था । नारद जी परम वैष्णव हैं इसलिए वो प्रणाम करने वाले सभी देवी देवताओं को हरि कथा सुनाते थे । हरि कथा सुनने वाले देवी देवता दौड़ में जीत नहीं सकते थे इसलिए कुछ देवी देवता नारद जी को प्रणाम किये बिना ही निकल जाते थे।गणेश जी को जब इस दौड़ का पता चला तो उन्होंने भी अपने पिता से इसमें भाग लेने के बारे में पूछा और उनको इस दौड़ में हिस्सा लेने की अनुमति मिल गयी । गणेश जी के वाहन थे चूहा जबकि अन्य देवी देवताओं के वाहन गति में तेज और हवा में उड़ने वाले थे । अन्य देवी देवता नारद जी को प्रणाम किये बिना ही आगे बड़ जाते थे परन्तु गजानन ने नारद जी को प्रणाम किया और उनसे हरि कथा भी सुनी । नारद जी ने चेतावनी दी कि अगर वो हरि कथा सुनेंगे तो प्रतिस्पर्धा जीत नहीं पाएंगे लेकिन गजानन ने हरि कथा सुनने का फैसला किया ।नारद जी ने बताया एक रहस्यहरि कथा खत्म हो जाने के बाद नारद जी ने पूछा यह दौड़ किस लिए? तब गणेश जी ने बताया कि सबसे पहले ब्रम्हांड की तीन चक्कर लगाने वाले देव को देवताओं में अधिपति का खिताब मिलेगा और उसे हर किसी सुभ काम में सबसे पहले पूजा जायेगा । तब नारद जी ने गजानन को ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति के बारे में बताया । नारद जी ने कहा कि ब्रम्हांड के स्रोत है भगवान और यदि गणेश जी भगवान के तीन चकार लगा लें तो वे इस प्रतिस्पर्धा को जीत जायेंगे ।नारद जी ने बताया कि भगवान के नाम में और भगवान में कोई अंतर नहीं है । गजानन ने ऐसा ही किया और राम नाम अपनी सूंढ़ में लिखकर उसके तीन चक्कर लगा लिए । इस तरह करने के बाद नारद जी ने आशीर्वाद दिया कि गणेश दौड़ में जीत चुके हैं । गजानन ने आशीर्वाद लेकर दौड़ना शुरू कर दिया । जब उन्होंने पीछे देखा तो पता चला कि वे सभी देवी देवताओं के आगे थे । कुछ समय में गणेश जी यह प्रतिस्पर्धा जीत गए और गणेश जी को अधिपति कहा गया ।जब आप जय गणेश देवा आरती गाते हैं तो उसमे गणेश जी को अन्य कई नामों से बुलाते हैं । आपको यह जानकार हैरानी होगी कि गजानन के नामों के पीछे भी पौराणिक कथाएं मौजूद हैं । चलिए आपको बताते हैं कि गणेश जी को एकदन्त, गजानन या मंगल मूर्ती क्यों कहते हैं?गणेश जी के अन्य नामअन्य नामों से भी गणेश जी को बुलाया जाता है जैसे कि गणपति अर्थात जो शिव जी के गणों में सबसे प्रधान हैं । इनका एक नाम है गजानन यानि इनके मस्तक पर हाथी का सर लगा हुआ है । एक नाम है विनायक जिसका अर्थ है ये ज्ञान के भण्डार हैं । एक नाम है एकदन्त यानि इनके पास एक ही दांत है जो बड़ा विशेष है । आपको पता होगा गजानन ने महाभारत लिखने में भी योगदान दिया है । उन्होंने अपने इसी एक दांत से महाभारत ग्रन्थ को लिखा था ।एकदन्त का एक दांत किसने तोड़ा?एक बार की बात है परशुराम जी शिव जी से मिलने गए । गणेश जी ने कहा कि पिता जी अभी विश्राम कर रहे हैं इसलिए आप प्रवेश नहीं कर सकते । यदि आप परशुराम जी के यश से तो भली भांति परिचित नहीं हैं तो यह जान लीजिये कि उन्होंने पृथ्वी को 21 बार छत्रियों से वीहीन कर दिया था । परशुराम जी को रोकने वाला तीनो लोकों में कोई नहीं था जब वो छात्रिओं को मारने निकलते थे । गजानन की आयु उस समय काफी कम थी । एक बालक के द्वारा परशुराम जी का रोका जाना मूर्खता था और इसलिए परशुराम ने गणेश जी का एक दांत तोड़ दिया और वे एकदन्त कहलाये ।यह भी पड़ें – बेटी को घर की लक्ष्मी क्यों कहा जाता है?गणेश जी का सिर किसने काटा?गणेश जी आज्ञा पालन में निपुण थे । एक बार की बात है कि गणेश जी ने अपनी माँ की आज्ञा का पालन करने के चक्कर में शिव जी से ही युद्ध कर लिया । दरसल गणेश जी को माता पारवती ने आदेश दिया था कि किसी को भी अंदर मत आने देना । जब शिव जी ने अंदर जाने की कोशिस की तो बालक गणेश ने उन्हें रोका । शिव जी ने बताया कि वो गणेश जी के पिता हैं और इसलिए उन्हें अंदर जाने से नहीं रोका जाना चाहिए । गणेश जी नहीं माने और शिव ने उनका सर काट दिया । यह देखकर माँ पारवती विलाप करने लगीं और शिव जी ने एक हाथी का सिर गणेश जी को लगवा दिया । तभी से उनको गजानन कहा जाता है ।मित्रो उम्मीद करते हैं आजकी कहानी आपको पसंद आयी होगी । इसे शेयर करें और हमारा व्हाट्सप्प ग्रुप ज्वाइन करें । ग्रुप ज्वाइन करने के लिए यहाँ क्लिक करें – Join Whatsapp । फिर मिलते हैं एक और पौराणिक कहानी के साथ ।

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उन्नीसवें और बीसवें अवतारों में उन्होने यदुवंश मे बलराम और श्रीकृष्ण के नाम से प्रकट होकर पृथ्वी का भार उतारा। उसके बाद कलियुग आ जाने पर मगधदेश मे देवताओ के द्वेषी दैत्यों को मोहित करने के लिये अजन के पुत्र रूप में आपका बुद्धावतार होगा। इसके भी बहुत पीछे जब कलियुग का अंत समीप होगा और राजा लोग प्रायः लुटेरे हो जायेंगे, तब जगत के रक्षक भगवान विष्णुयश नामक ब्राह्मण के घर कल्किरूप में अवतीर्ण होंगे। By वनिता कासनियां पंजाब ? शौनकादि ऋषियों! जैसे अगाध सरोवर से हजारों छोटे-छोटे नाले निकलते है, वैसे ही सत्त्वनिधि भगवान श्रीहरि के असंख्य अवतार हुआ करते हैं। ऋषि, मनु, देवता, प्रजापति, मनुपुत्र और जितने भी महान शक्तिशाली हैं, वे सब-के-सब भगवान के ही अंश हैं। ये सब अवतार तो भगवान के अंशावतार अथवा कलावतार हैं, जब लोग दैत्यों के अत्याचारों से व्याकुल हो उठते हैं, तब युग-युग में अनेक रूप धारण करके भगवान उनकी रक्षा करते हैं। भगवान के दिव्य जन्मों की यह कथा अत्यंत गोपनीय-रहस्यमयी है, जो मनुष्य एकाग्रचित्त से नियमपूर्वक सांयकाल और प्रातःकाल प्रेम से इसका पाठ करता है, वह सब दुःखों से छूट जाता है।

  उन्नीसवें और बीसवें अवतारों में उन्होने यदुवंश मे बलराम और श्रीकृष्ण के नाम से प्रकट होकर पृथ्वी का भार उतारा। उसके बाद कलियुग आ जाने पर मगधदेश मे देवताओ के द्वेषी दैत्यों को मोहित करने के लिये अजन के पुत्र रूप में आपका बुद्धावतार होगा। इसके भी बहुत पीछे जब कलियुग का अंत समीप होगा और राजा लोग प्रायः लुटेरे हो जायेंगे, तब जगत के रक्षक भगवान विष्णुयश नामक ब्राह्मण के घर कल्किरूप में अवतीर्ण होंगे। By वनिता कासनियां पंजाब ? शौनकादि ऋषियों! जैसे अगाध सरोवर से हजारों छोटे-छोटे नाले निकलते है, वैसे ही सत्त्वनिधि भगवान श्रीहरि के असंख्य अवतार हुआ करते हैं। ऋषि, मनु, देवता, प्रजापति, मनुपुत्र और जितने भी महान शक्तिशाली हैं, वे सब-के-सब भगवान के ही अंश हैं। ये सब अवतार तो भगवान के अंशावतार अथवा कलावतार हैं, जब लोग दैत्यों के अत्याचारों से व्याकुल हो उठते हैं, तब युग-युग में अनेक रूप धारण करके भगवान उनकी रक्षा करते हैं। भगवान के दिव्य जन्मों की यह कथा अत्यंत गोपनीय-रहस्यमयी है, जो मनुष्य एकाग्रचित्त से नियमपूर्वक सांयकाल और प्रातःकाल प्रेम से इसका पाठ करता है, वह सब दुःखों से छूट जाता है।

भगवान की लीला अमोध है। वे लीला से ही इस संसार का सृजन, पालन और संहार करते हैं, किंतु इसमे आसक्त नही होते। प्राणियों के अंतःकरण मे छिपे रहकर ज्ञानेंद्रिय और मन के नियंता के रूप में उनके विषयों को ग्रहण भी करते है, परंतु उनसे अलग रहते हैं, वे परम स्वतंत्र है–ये विषय कभी उन्हे लिप्त नहीं कर सकते। जैसे अनजान मनुष्य जादूगर अथवा नट के संकल्प और वचनों से की हुई करामात को नही समझ पाते, वैसे ही अपने संकल्प और वेदवाणी के द्वारा भगवान के प्रकट किये हुये इन नाना नाम और रूपों को तथा उनकी लीलाओ को कुबुद्धि जीव बहुत सी तर्क-युक्तियों के द्वारा नही पहचान सकता।

 भगवान की लीला अमोध है। वे लीला से ही इस संसार का सृजन, पालन और संहार करते हैं, किंतु इसमे आसक्त नही होते। प्राणियों के अंतःकरण मे छिपे रहकर ज्ञानेंद्रिय और मन के नियंता के रूप में उनके विषयों को ग्रहण भी करते है, परंतु उनसे अलग रहते हैं, वे परम स्वतंत्र है–ये विषय कभी उन्हे लिप्त नहीं कर सकते। जैसे अनजान मनुष्य जादूगर अथवा नट के संकल्प और वचनों से की हुई करामात को नही समझ पाते, वैसे ही अपने संकल्प और वेदवाणी के द्वारा भगवान के प्रकट किये हुये इन नाना नाम और रूपों को तथा उनकी लीलाओ को कुबुद्धि जीव बहुत सी तर्क-युक्तियों के द्वारा नही पहचान सकता।