श्रीसूतजी कहते हैं – सृष्टि के आदि में भगवान ने लोकों के निर्माण की इच्छा होते ही उन्होने महतत्त्व आदि से निष्पन्न पुरुषरूप ग्रहण किया। उसमें दस इंद्रियाँ, एक मन और पाँच भूत – ये सोलह कलाएँ थी। उन्होने कारण-जल में शयन करते हुये जब योगनिंद्रा का विस्तार किया, तब उनके नाभि-सरोवर में एक कमल प्रकट हुआ और उस कमल से प्रजापतियों के अधिपति ब्रह्माजी उत्पन्न हुये। भगवान के उस विराटरूप के अंग – प्रत्यंग में ही समस्त लोकों की कल्पना की गयी है, वह भगवान का विशुद्ध सत्त्वमय श्रेष्ठ रूप है। By वनिता कासनियां पंजाब योगी लोग दिव्य दृष्टि से भगवान के उस रूप का दर्शन करते हैं। भगवान का वह रूप हजारों पैर, जाँघे, भुजाएँ और मुखों के कारण अत्यंत विलक्षण है; उसमें सहस्त्रों सिर, हजारों कान, हजारों आँखे और हजारों नासिकाएँ हैं। हजारो मुकुट, वस्त्र और कुण्डल आदि आभुषणो से वह उल्लासित रहता है। भगवान का यही पुरुषरूप जिसे नारायण कहते हैं, अनेक अवतारों का अक्षय कोष है–इसी से सारे अवतार प्रकट होते है। इस रूप के छोटे-से-छोटे अंश से देवता, पशु-पक्षी और मनुष्यादि योनियों की सृष्टि होती है
श्रीसूतजी कहते हैं – सृष्टि के आदि में भगवान ने लोकों के निर्माण की इच्छा होते ही उन्होने महतत्त्व आदि से निष्पन्न पुरुषरूप ग्रहण किया। उसमें दस इंद्रियाँ, एक मन और पाँच भूत – ये सोलह कलाएँ थी। उन्होने कारण-जल में शयन करते हुये जब योगनिंद्रा का विस्तार किया, तब उनके नाभि-सरोवर में एक कमल प्रकट हुआ और उस कमल से प्रजापतियों के अधिपति ब्रह्माजी उत्पन्न हुये। भगवान के उस विराटरूप के अंग – प्रत्यंग में ही समस्त लोकों की कल्पना की गयी है, वह भगवान का विशुद्ध सत्त्वमय श्रेष्ठ रूप है।
योगी लोग दिव्य दृष्टि से भगवान के उस रूप का दर्शन करते हैं। भगवान का वह रूप हजारों पैर, जाँघे, भुजाएँ और मुखों के कारण अत्यंत विलक्षण है; उसमें सहस्त्रों सिर, हजारों कान, हजारों आँखे और हजारों नासिकाएँ हैं। हजारो मुकुट, वस्त्र और कुण्डल आदि आभुषणो से वह उल्लासित रहता है। भगवान का यही पुरुषरूप जिसे नारायण कहते हैं, अनेक अवतारों का अक्षय कोष है–इसी से सारे अवतार प्रकट होते है। इस रूप के छोटे-से-छोटे अंश से देवता, पशु-पक्षी और मनुष्यादि योनियों की सृष्टि होती है
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