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पंद्रहवी बार वामन का रूप धारण करके भगवान दैत्यराज बलि के यज्ञ में गये। वे चाहते तो थे त्रिलोकी का राज्य, परंतु माँगी उन्होने केवल तीन पग पृथ्वी। सोलहवें परशुराम अवतार में जब उन्होने देखा कि राजा लोग ब्राह्मणों के द्रोही हो गये है, तब क्रोधित होकर पृथ्वी को इक्कीस बार क्षत्रियों से शून्य कर दिया। इसके बाद सत्रहवें अवतार में सत्यवती के गर्भ से पराशरजी के द्वारा वे व्यास के रूप में अवतीर्ण हुये, उस समय लोगो की समझ और धारणा शक्ति कम देखकर आपने वेदरूप वृक्ष की कई शाखाएँ बना दी। अठारहवी बार देवताओं का कार्य सम्पन्न करने की इच्छा से उन्होने राजा के रूप मे रामावतार ग्रहण किया और सेतु-बंधन, रावणवध आदि वीरतापूर्ण बहुत सी लीलाएँ की। By वनिता कासनियां पंजाब

 पंद्रहवी बार वामन का रूप धारण करके भगवान दैत्यराज बलि के यज्ञ में गये। वे चाहते तो थे त्रिलोकी का राज्य, परंतु माँगी उन्होने केवल तीन पग पृथ्वी। सोलहवें परशुराम अवतार में जब उन्होने देखा कि राजा लोग ब्राह्मणों के द्रोही हो गये है, तब क्रोधित होकर पृथ्वी को इक्कीस बार क्षत्रियों से शून्य कर दिया। इसके बाद सत्रहवें अवतार में सत्यवती के गर्भ से पराशरजी के द्वारा वे व्यास के रूप में अवतीर्ण हुये, उस समय लोगो की समझ और धारणा शक्ति कम देखकर आपने वेदरूप वृक्ष की कई शाखाएँ बना दी। अठारहवी बार देवताओं का कार्य सम्पन्न करने की इच्छा से उन्होने राजा के रूप मे रामावतार ग्रहण किया और सेतु-बंधन, रावणवध आदि वीरतापूर्ण बहुत सी लीलाएँ की। By वनिता कासनियां पंजाब 

पाँचवे अवतार में वे सिद्धों के स्वामी कपिल के रूप में प्रकट हुये और तत्त्वों का निर्णय करने वाले सांख्य – शास्त्र का, जो समय के फेर से लुप्त हो गया था, आसुरि नामक ब्राह्मण को उपदेश किया। अनुसूया के वर माँगने पर छ्ठे अवतार मे वे अत्रि की संतान – दत्तात्रेय हुये। इस अवतार में उन्होने अलर्क एवम प्रह्लाद आदि को ब्रह्मज्ञान का उपदेश किया। By वनिता कासनियां पंजाब सातवीं बार रुचि प्रजापति की आकूति नामक पत्नी से यज्ञ के रूप मे उन्होने अवतार ग्रहण किया और अपने पुत्र याम आदि देवताओं के साथ स्वायम्भुव मंवंतर की रक्षा की। राजा नाभि की पत्नी मेरु देवी के गर्भ से ऋषभदेव के रूप में भगवान ने आठवाँ अवतार ग्रहण किया। इस रूप में उन्होने परमहंसों का मार्ग, जो सभी आश्रमियों के लिये वंदनीय है, दिखाया।

 पाँचवे अवतार में वे सिद्धों के स्वामी कपिल के रूप में प्रकट हुये और तत्त्वों का निर्णय करने वाले सांख्य – शास्त्र का, जो समय के फेर से लुप्त हो गया था, आसुरि नामक ब्राह्मण को उपदेश किया। अनुसूया के वर माँगने पर छ्ठे अवतार मे वे अत्रि की संतान – दत्तात्रेय हुये। इस अवतार में उन्होने अलर्क एवम प्रह्लाद आदि को ब्रह्मज्ञान का उपदेश किया।  By वनिता  कासनियां पंजाब सातवीं बार रुचि प्रजापति की आकूति नामक पत्नी से यज्ञ के रूप मे उन्होने अवतार ग्रहण किया और अपने पुत्र याम आदि देवताओं के साथ स्वायम्भुव मंवंतर की रक्षा की। राजा नाभि की पत्नी मेरु देवी के गर्भ से ऋषभदेव के रूप में भगवान ने आठवाँ अवतार ग्रहण किया। इस रूप में उन्होने परमहंसों का मार्ग, जो सभी आश्रमियों के लिये वंदनीय है, दिखाया।

उन्ही प्रभु पहले कौमारसर्ग में सनक, सनंदन, सनातन और सनत्कुमार – इन चार ब्राह्मणो के रूप में अवतार ग्रहण करके अत्यंत कठिन अखंड ब्रह्मचर्य का पालन किया। दूसरी बार इस संसार के कल्याण के लिये समस्त यज्ञों के स्वामी उन भगवान ने ही रसातल में गयी हुयी पृथ्वी को निकाल लाने के विचार से सूकररूप ग्रहण किया। By वनिता कासनियां पंजाब ऋषियों की सृष्टि में उन्होने देवर्षि नारद के रूप में तीसरा अवतार ग्रहण किया और सात्वत तंत्र का उपदेश किया; उसमें कर्मो के द्वारा किस प्रकार कर्म बंधन से मुक्ति मिलती है, इसका वर्णन है। धर्मपत्नी मूर्ति के गर्भ से उन्होने नर-नारायण के रूप में चौथा अवतार ग्रहण किया। इस अवतार मे उन्होने ऋषि बनकर मन और इंद्रियों का सर्वथा संयम करके बड़ी कठिन तपस्या की।

उन्ही प्रभु पहले कौमारसर्ग में सनक, सनंदन, सनातन और सनत्कुमार – इन चार ब्राह्मणो के रूप में अवतार ग्रहण करके अत्यंत कठिन अखंड ब्रह्मचर्य का पालन किया। दूसरी बार इस संसार के कल्याण के लिये समस्त यज्ञों के स्वामी उन भगवान ने ही रसातल में गयी हुयी पृथ्वी को निकाल लाने के विचार से सूकररूप ग्रहण किया। By वनिता कासनियां पंजाब ऋषियों की सृष्टि में उन्होने देवर्षि नारद के रूप में तीसरा अवतार ग्रहण किया और सात्वत तंत्र का उपदेश किया; उसमें कर्मो के द्वारा किस प्रकार कर्म बंधन से मुक्ति मिलती है, इसका वर्णन है। धर्मपत्नी मूर्ति के गर्भ से उन्होने नर-नारायण के रूप में चौथा अवतार ग्रहण किया। इस अवतार मे उन्होने ऋषि बनकर मन और इंद्रियों का सर्वथा संयम करके बड़ी कठिन तपस्या की।

श्रीसूतजी कहते हैं – सृष्टि के आदि में भगवान ने लोकों के निर्माण की इच्छा होते ही उन्होने महतत्त्व आदि से निष्पन्न पुरुषरूप ग्रहण किया। उसमें दस इंद्रियाँ, एक मन और पाँच भूत – ये सोलह कलाएँ थी। उन्होने कारण-जल में शयन करते हुये जब योगनिंद्रा का विस्तार किया, तब उनके नाभि-सरोवर में एक कमल प्रकट हुआ और उस कमल से प्रजापतियों के अधिपति ब्रह्माजी उत्पन्न हुये। भगवान के उस विराटरूप के अंग – प्रत्यंग में ही समस्त लोकों की कल्पना की गयी है, वह भगवान का विशुद्ध सत्त्वमय श्रेष्ठ रूप है। By वनिता कासनियां पंजाब योगी लोग दिव्य दृष्टि से भगवान के उस रूप का दर्शन करते हैं। भगवान का वह रूप हजारों पैर, जाँघे, भुजाएँ और मुखों के कारण अत्यंत विलक्षण है; उसमें सहस्त्रों सिर, हजारों कान, हजारों आँखे और हजारों नासिकाएँ हैं। हजारो मुकुट, वस्त्र और कुण्डल आदि आभुषणो से वह उल्लासित रहता है। भगवान का यही पुरुषरूप जिसे नारायण कहते हैं, अनेक अवतारों का अक्षय कोष है–इसी से सारे अवतार प्रकट होते है। इस रूप के छोटे-से-छोटे अंश से देवता, पशु-पक्षी और मनुष्यादि योनियों की सृष्टि होती है

श्रीसूतजी कहते हैं – सृष्टि के आदि में भगवान ने लोकों के निर्माण की इच्छा होते ही उन्होने महतत्त्व आदि से निष्पन्न पुरुषरूप ग्रहण किया। उसमें दस इंद्रियाँ, एक मन और पाँच भूत – ये सोलह कलाएँ थी। उन्होने कारण-जल में शयन करते हुये जब योगनिंद्रा का विस्तार किया, तब उनके नाभि-सरोवर में एक कमल प्रकट हुआ और उस कमल से प्रजापतियों के अधिपति ब्रह्माजी उत्पन्न हुये। भगवान के उस विराटरूप के अंग – प्रत्यंग में ही समस्त लोकों की कल्पना की गयी है, वह भगवान का विशुद्ध सत्त्वमय श्रेष्ठ रूप है। By वनिता कासनियां पंजाब योगी लोग दिव्य दृष्टि से भगवान के उस रूप का दर्शन करते हैं। भगवान का वह रूप हजारों पैर, जाँघे, भुजाएँ और मुखों के कारण अत्यंत विलक्षण है; उसमें सहस्त्रों सिर, हजारों कान, हजारों आँखे और हजारों नासिकाएँ हैं। हजारो मुकुट, वस्त्र और कुण्डल आदि आभुषणो से वह उल्लासित रहता है। भगवान का यही पुरुषरूप जिसे नारायण कहते हैं, अनेक अवतारों का अक्षय कोष है–इसी से सारे अवतार प्रकट होते है। इस रूप के छोटे-से-छोटे अंश से देवता, पशु-पक्षी और मनुष्यादि योनियों की सृष्टि होती है

इसमे कलियुग के दोषों से बचने के उपाये – केवल ‘नामसंकीर्तन’ है। मृत्यु तो परीक्षित जी को आई ही नही क्योकि उन्होने उसके पहले ही समाधि लगाकर स्वयं को भगवान मे लीन कर दिया था। उनकी परमगति हुई क्योकि इस भागवत रूपी अमृत का पान कर लिया हो उसे मृत्यु कैसे आ सकती है। By वनिता कासनियां पंजाब इस पुराण में वर्णाश्रम-धर्म-व्यवस्था को पूरी मान्यता दी गई है तथा स्त्री, शूद्र और पतित व्यक्ति को वेद सुनने के अधिकार से वंचित किया गया है। ब्राह्मणों को अधिक महत्त्व दिया गया है। वैदिक काल में स्त्रियों और शूद्रों को वेद सुनने से इसलिए वंचित किया गया था कि उनके पास उन मन्त्रों को श्रवण करके अपनी स्मृति में सुरक्षित रखने का न तो समय था और न ही उनका बौद्धिक विकास इतना तीक्ष्ण था। किन्तु बाद में वैदिक ऋषियों की इस भावना को समझे बिना ब्राह्मणों ने इसे रूढ़ बना दिया और एक प्रकार से वर्गभेद को जन्म दे डाला।

इसमे कलियुग के दोषों से बचने के उपाये – केवल ‘नामसंकीर्तन’ है। मृत्यु तो परीक्षित जी को आई ही नही क्योकि उन्होने उसके पहले ही समाधि लगाकर स्वयं को भगवान मे लीन कर दिया था। उनकी परमगति हुई क्योकि इस भागवत रूपी अमृत का पान कर लिया हो उसे मृत्यु कैसे आ सकती है। By वनिता कासनियां पंजाब इस पुराण में वर्णाश्रम-धर्म-व्यवस्था को पूरी मान्यता दी गई है तथा स्त्री, शूद्र और पतित व्यक्ति को वेद सुनने के अधिकार से वंचित किया गया है। ब्राह्मणों को अधिक महत्त्व दिया गया है। वैदिक काल में स्त्रियों और शूद्रों को वेद सुनने से इसलिए वंचित किया गया था कि उनके पास उन मन्त्रों को श्रवण करके अपनी स्मृति में सुरक्षित रखने का न तो समय था और न ही उनका बौद्धिक विकास इतना तीक्ष्ण था। किन्तु बाद में वैदिक ऋषियों की इस भावना को समझे बिना ब्राह्मणों ने इसे रूढ़ बना दिया और एक प्रकार से वर्गभेद को जन्म दे डाला।

इसमे भगवान की ‘ऎश्वर्य’ लीला’ का वर्णन है जहां भगवान ने बांसुरी छोडकर सुदर्शन चक्र धारण किया उनकी कर्मभूमि, नित्यचर्या, गृहस्थ, का बडा ही अनुपम वर्णन है। By वनिता कासनियां पंजाब एकादश स्कन्ध इसमे भगवान ने अपने ही यदुवंश को ऋषियों का श्राप लगाकर यह बताया की गलती चाहे कोई भी करे मेरे अपने भी उसको अपनी करनी का फ़ल भोगना पडेगा, भगवान की माया बडी प्रबल है उससे पार होने के उपाय केवल भगवान की भक्ति है, यही इस स्कन्ध का सार है। अवधूतोपख्यान – 24 गुरुओं की कथा शिक्षायें है।

इसमे भगवान की ‘ऎश्वर्य’ लीला’ का वर्णन है जहां भगवान ने बांसुरी छोडकर सुदर्शन चक्र धारण किया उनकी कर्मभूमि, नित्यचर्या, गृहस्थ, का बडा ही अनुपम वर्णन है। By वनिता कासनियां पंजाब एकादश स्कन्ध  इसमे भगवान ने अपने ही यदुवंश को ऋषियों का श्राप लगाकर यह बताया की गलती चाहे कोई भी करे मेरे अपने भी उसको अपनी करनी का फ़ल भोगना पडेगा, भगवान की माया बडी प्रबल है उससे पार होने के उपाय केवल भगवान की भक्ति है, यही इस स्कन्ध का सार है। अवधूतोपख्यान – 24 गुरुओं की कथा शिक्षायें है।

भागवत का ‘हृदय’ दशम स्कन्ध है बडे-बडे संत महात्मा, भक्त के प्राण है यह दशम स्कन्ध, भगवान अजन्मा है, उनका न जन्म होता है न मृत्यु, श्री कृष्ण का तो केवल ‘प्राकट्य’ होता है, भगवान का प्राकट्य किसके जीवन मे, और क्यों होता है, किस तरह के भक्त भगवान को प्रिय है, भक्तो पर कृपा करने के लिये, उन्ही की ‘पूजा – पद्धति’ स्वीकार करने के लिये, चाहे जैसे भी पद्धति हो, के लिये ही भगवान का प्राकट्य हुआ, उनकी सारी लीलाये, केवल अपने भक्तो के लिये थी | By वनिता कासनियां पंजाब जिस-जिस भक्त ने उद्धार चाहा, वह राक्षस बनकर उनके सामने आता गया और जिसने उनके साथ क्रिडा करनी चाही वह भक्त, सखा, गोपी, के माध्यम से सामने आते गये, उद्देश्य केवल एक था – ‘श्री कृष्ण की प्राप्ति’ भगवान की इन्ही ‘दिव्य लीलाओ का वर्णन’ इस स्कन्ध मे है जहां ‘पूतना मोक्ष’ उखल बंधन’ चीर हरण’ ‘ गोवर्धन’ जैसी दिव्य लीला और रास, महारास, गोपीगीत तो दिवाति दिव्य लीलायें है। इन दिव्य लीलाओ का श्रवण, चिंतन, मनन बस यही जीवन का सार’ है।

भागवत का ‘हृदय’ दशम स्कन्ध है बडे-बडे संत महात्मा, भक्त के प्राण है यह दशम स्कन्ध, भगवान अजन्मा है, उनका न जन्म होता है न मृत्यु, श्री कृष्ण का तो केवल ‘प्राकट्य’ होता है, भगवान का प्राकट्य किसके जीवन मे, और क्यों होता है, किस तरह के भक्त भगवान को प्रिय है, भक्तो पर कृपा करने के लिये, उन्ही की ‘पूजा – पद्धति’ स्वीकार करने के लिये, चाहे जैसे भी पद्धति हो, के लिये ही भगवान का प्राकट्य हुआ, उनकी सारी लीलाये, केवल अपने भक्तो के लिये थी | By वनिता कासनियां पंजाब जिस-जिस भक्त ने उद्धार चाहा, वह राक्षस बनकर उनके सामने आता गया और जिसने उनके साथ क्रिडा करनी चाही वह भक्त, सखा, गोपी, के माध्यम से सामने आते गये, उद्देश्य केवल एक था – ‘श्री कृष्ण की प्राप्ति’ भगवान की इन्ही ‘दिव्य लीलाओ का वर्णन’ इस स्कन्ध मे है जहां ‘पूतना मोक्ष’ उखल बंधन’ चीर हरण’ ‘ गोवर्धन’ जैसी दिव्य लीला और रास, महारास, गोपीगीत तो दिवाति दिव्य लीलायें है। इन दिव्य लीलाओ का श्रवण, चिंतन, मनन बस यही जीवन का सार’ है।